#Dushehra : प्रयागराज का दशहरा विश्व-प्रसिद्ध है इसलिए...
प्रयागराज का दशहरा : ऐसिहासिक दृष्टि से...
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श्रीराम, लक्ष्मण, सीताजी की जड़ाऊ/कलात्मक श्रृंगार चौकी, जो मध्य रात्रि / भोर से पहले चौक क्षेत्र प्रयागराज में निकलती है (फाईल फोटो) |
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राजेशपाठक अवैतनिक संपादक
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प्रयागराज का दशहरा : ऐसिहासिक दृष्टि से...
वर्तमान प्रयागराज का क्षेत्र ललित कलाओं के प्रारंभिक काल का क्षेत्र रहा है!!!एक कार्यक्रम में मैंने यह बात कही तो कुछ लोगों का अजीब सा मुख बन गया। भरद्वाज जी के काल के बाद की कालखंड का प्रयागराज का इतिहास गोलमोल है। मैं लगातार अपने ज्ञान को बढ़ा रहा हूं, इसी क्रम में यह स्थापित हो रहा है कि यमुना पार पुराण काल का चित्रकूट क्षेत्र था। ललित कलाओं के प्रारंभिक जनक महर्षि बाल्मीकि थे। इनका प्रारंभिक कालखंड आज के चाकघाट से मेजा के मनासा से पहले तक था या पास तक था।
रामलीला का वर्तमान रूप प्रारंभिक रूप नहीं है बल्कि उसका सुधरा हुआ रूप है। श्रुति परंपरा के अनुसार हम अपने गुरु या पूर्वज से कथा रूप में किसी भी इतिहास या विषय के बारे में सुनते थे और उसे सुनकर रख लेते थे गायन इसका शुद्ध रूप है। संक्षेप में महर्षि बाल्मीकि इसके जनक और बाल्मीक क्षेत्र में गायन करने वाले लोग हुए। नट भाट उनका परिष्कृत आधुनिक नाम है। यहीं से यह बिरहा विस्तारित हुई जिसका प्रमाणीकरण भरद्वाज आश्रम में पहली बार रामकथा का गायन है। यहां तथ्य और प्रमाण के लिए विस्तारित स्था- नहीं है। इसलिए नहीं लिख रहा, लेकिन यह शोध का विषय है।
राम वन गमन मार्ग, चित्रकूट - प्रयाग - बाल्मीकि का क्षेत्र- बाल्मीकि से लगकर राम कथा इन रास्तों से होते हुए आधुनिक और वर्तमान पड़ाव तक पहुंची है। मंथन हो तो कुछ रहस्य और खुले, धुंधलापन कुछ कम हो। प्रो। रास बिहारी दुबे जबलपुर ने कुछ काम किया है, लेकिन वह खुद संशय में है। मेरा भी प्रयास जारी है।
"प्रयाग की रामलीला ने बदल दी अकबर की सोंच", मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भक्त हुआ, चलाया सिक्का और दीन ए इलाही धर्म ! क्या तुलसीदास के पहले भी होती थी रामलीला!
राम की लीला का वर्णन तुलसीदास कृत रामचरितमानस वर्तमान समय में माना जाता है।
सामान्य तौर पर आज प्रयागराज में रामलीला का मंचन का श्रेय मुख्य रूप से गोस्वामी तुलसीदास को दिया जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम कथा और रामलीला को "और" बढ़ाया जन-जन तक पहुंचाया। कई ऐसे तथ्य मिलते हैं जिससे यह स्थापित होता है कि प्रयागराज में मुगल काल में भी रामलीला का मंचन होता था। और यह मंचन मुख्य रूप से भारतीय योद्धा या सिपाही( देशी पलटन के जवान ) करते थे। उस समय स्वांग कलाकार इन मनचनों में प्रमुख रूप से भाग लेते थे।
राम वन गमन मार्ग, चित्रकूट - प्रयाग - बाल्मीकि का क्षेत्र- बाल्मीकि से लगकर राम कथा इन रास्तों से होते हुए आधुनिक और वर्तमान पड़ाव तक पहुंची है। मंथन हो तो कुछ रहस्य और खुले, धुंधलापन कुछ कम हो। प्रो। रास बिहारी दुबे जबलपुर ने कुछ काम किया है, लेकिन वह खुद संशय में है। मेरा भी प्रयास जारी है।
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सामान्य तौर पर आज प्रयागराज में रामलीला का मंचन का श्रेय मुख्य रूप से गोस्वामी तुलसीदास को दिया जाता है। लेकिन मेरा मानना है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम कथा और रामलीला को "और" बढ़ाया जन-जन तक पहुंचाया। कई ऐसे तथ्य मिलते हैं जिससे यह स्थापित होता है कि प्रयागराज में मुगल काल में भी रामलीला का मंचन होता था। और यह मंचन मुख्य रूप से भारतीय योद्धा या सिपाही( देशी पलटन के जवान ) करते थे। उस समय स्वांग कलाकार इन मनचनों में प्रमुख रूप से भाग लेते थे।
महर्षि भरद्वाज की नगरी प्रयागराज में भगवान राम का नाता महर्षि भरद्वाज से सीधे तौर पर जुड़ता है। महर्षि भरद्वाज का नाता लंकापति रावण से भी जुड़ता है। महर्षि भारद्वाज वैज्ञानिक थे, जिन्होंने सभ्यता में सबसे पहले विमान की जानकारी दी। महर्षि अगस्त्य के, विद्युत के अविष्कार को प्रयोग करके उन्होंने विमान को हवा में उड़ाया जिसका विवरण अब मिल रहा है। महर्षि भरद्वाज सभ्यता के पहले कुलपति थे। या कहें वह पहले व्यक्ति थे जिनके आगे कुलपति शब्द इस्तेमाल किया गया। जिस व्यक्ति के 10,000 शिष्य होते हैं , उन्हें कुलपति कहा गया।
महर्षि भरद्वाज का गुरुकुल उसी स्थान पर था, जहां पर आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय का म्योर कॉलेज, मुस्लिम बोर्डिंग भरद्वाज आश्रम कटरा आदि है। महर्षि भरद्वाज पृथ्वी पर आयुर्वेद के जनक है। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं। सामान्यत: लोग यह जानते हैं कि आयुर्वेद का जन्म महर्षि चरक का वरदान है। हमारे धर्म ग्रंथों में स्पष्ट उल्लेख है कि ब्रह्मा से अश्वनी कुमारों ने, अश्वनी कुमारों से इंद्र ने, और इंद्र से महर्षि भरद्वाज ने यह विद्या ग्रहण की और पृथ्वी पर जन कल्याण के लिए वह इंद्र से लेकर आए। महर्षि भरद्वाज के 10 शिष्य थे। इनमें से एक शिष्य का नाम अग्निवेश उपनाम चरक था।
महर्षि भारद्वाज की शिक्षा को संहिता के रूप में चरक ने लिखा। इसी चरक संहिता को हम जानते हैं। महर्षि भरद्वाज ने भगवान राम को आशीर्वाद दिया और मार्गदर्शन भी। मेरा मानना है कि बाद में "भरद्वाज" पद हो गया। क्योंकि जिसे याज्ञवल्क्य ऋषि ने राम कथा सुनाई, और जिन भरद्वाज जी ने भगवान राम का मार्गदर्शन किया वह अलग-अलग व्यक्ति थे।याज्ञवल्क्य की कथा का उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में किया है। जो महर्षि भरद्वाज भगवान राम को आशीर्वाद और मार्गदर्शन दे रहे हैं। वही भरद्वाज याज्ञवल्क्य ऋषि से राम कथा सुनकर जन को बता रहे हैं । यह मेल नहीं खाता।
यही महर्षि भरद्वाज से साम्यता बताती है, कि भगवान राम का प्रयागराज से नाता था और लंकापति रावण का भी नाता प्रयागराज से था। राम कथाओं का मंचन या कहें रामकथा का पात्र के रूप में मंचन का तथ्य हमें मुगल काल से मिलना शुरू हो जाता है। प्रयागराज की भूमि पर रामलीला खेले जाने की परम्परा का उल्लेख गोस्वामी तुलसीदास जी के रामचरित मानस के लिखे जाने के पूर्व हमें "तबकाते अकबरी" में मिलता है। इसमें लिखा है- सम्राट अकबर ने प्रयाग की रामलीला में राम वनवास और दशरथ के मृत्यु का लीला अभिनय को देख सम्राट की आँखों से अश्रुधारा बह चली थी। अकबर राम के आदर्श चरित्र से इतना प्रभावित हुआ, कि उसने दूसरे दिन रामकथा का फारसी में अनुवाद का आदेश दिया था। अकबर ने यह आदेश अल्लामा फैजी को दिया। बाल्मीकि रामायण मूल ग्रंथ था जिसके जरिए राम की कथाओं को लोग गाया करते थे।
अकबर ने अपने एक फरमान द्वारा सन् 1575 में रामलीला मनाने के लिए गुसाई भगवान दास को एक बड़ा भूखण्ड पुश्तहापुश्त प्रदान किया। अकबर, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के इस आदर्श चरित्र से अत्यंत प्रभावित था। इसी कारण से उसने उनके ऊपर एक सिक्का भी जारी किया था। इस अवसर के स्मारक स्वरूप सम्राट अकबर ने ‘रामसीय’ का सोने एवं चाँदी का सिक्का चलाया।
सोने की अर्द्ध-मुहरों में से एक ब्रिटिश म्यूजियम में है और दूसरा कैबिनेट डे फ्रांस में "रामसीय" की एक रजत मुद्रा भारत कला भवन संग्रहालय वाराणसी में संगृहीत है। इसे डा॰ वासुदेवशरण अग्रवाल ने एक व्यापारी से प्राप्त किया था। सोने एवं चाँदी के साँचे अलग-अलग हैं। भारत कला भवन वाले सिक्के के एक तरफ राम एवं सीता को दिखाया गया है। राम धनुष बाण लिये हुए आगे हैं। सीता अपने हाथों में पुष्प लिये हुए पीछे चल रही है। राम के पीठ पर तूणीर कसा हुआ है तथा सर पर मुकुट हैं।
व़स्त्राभूशण से सुसज्जित राम सीता का स्वरूप पारम्परिक है। सिक्के के ऊपरी भाग में रामसी (य) अभिलेख देवनागरी अक्षर में लिखा हैं। दूसरी तरफ फूल की मुर्री वाली पृश्ठिका पर 50 इलाही अमरदार लिखा हुआ है। सोने के अर्द्ध मुहर जो विदेश में है, उसमें राम एवं सीता को प्राचीन वेशभूशा में अंकित किया गया है । राम को उत्तरीय तथा धोती पहने हुए है, सीता को साड़ी पहने अवगुंठन संभालने में व्यस्त दिखाया गया है। अकबर ने इस भाँति के कई स्मारक सिक्के समय-समय पर चलाये थे।
रामचरितमानस का मूल स्रोत बाल्मीकि रामायण और श्रुति है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को अवधी खड़ी भाषा में लिखा तो यह जन-जन के मानस पर आ गई। गोस्वामी तुलसीदास जी राम कथा में सराबोर थे। प्रयाग में रहने के दौरान उन्होंने रामलीला के मंचन की शुरुआत की।
रामचरितमानस का मूल स्रोत बाल्मीकि रामायण और श्रुति है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस को अवधी खड़ी भाषा में लिखा तो यह जन-जन के मानस पर आ गई। गोस्वामी तुलसीदास जी राम कथा में सराबोर थे। प्रयाग में रहने के दौरान उन्होंने रामलीला के मंचन की शुरुआत की।
प्रयागराज में 4 राम लीला कमेटी या दशहरा कमेटी का जिक्र मिलता है। मजे की बात है की दशहरा या रामलीला के मंचन का जो इतिहास मिलता है, वह चौंकाने वाला है। इसमें कटरा रामलीला का इतिहास सबसे रोचक है। तथ्यों के अनुसार आजादी के पहले भी यहां रामलीला और रावण का दहन होता था। इसे सेना के जवान आयोजित करते थे, जिसमें बाद में जन सहभागिता होने लगी।
आज जहां कटरा रामलीला आयोजित होती है, यह अंग्रेजो के समय में परेड के रूप में जाना जाता था। देसी पलटन के सिपाही यहां पर उत्सव मनाते थे। दशहरे के समय यहां देसी पलटन के सिपाही कुश्ती लड़ते थे तरह-तरह के तमाशे होते थे। साथ ही नकली लड़ाइयां लड़ी जाती थी। आतिशबाजी छूटती थी। परेड पर रावण को रखा जाता था जिसके अंदर आतिशबाजी भरी होती थी। अंतिम दिन रावण जलाया जाता था। उसके अन्दर भरी आतिशबाजी छूटती थी। देसी रेजिमेंट के सिपाही अपने झंडे के साथ निकलते थे। स्वांग कलाकार बन्दर बनते थे। इनकी, "बंदरों" की फौज निकलती थी, जिसके आगे हनुमान होते थे। रेजीमेंट के सिपाही फूल मिठाई चावल और पान से इनकी पूजा करते थे।
1800 के आसपास दो अंग्रेज यात्रियों ने यहां की रामलीलाओं का अपनी तरह से वर्णन किया है। कटरा की रामलीला का वर्णन करते हुए वह लिखते हैं कि देसी पलटन के लोग और स्वांग रचने वाले कलाकार हनुमान दल निकालते थे। बिशप हेबर और फैनी पार्क्स। ने उस समय प्रयागराज में चौथम लाइन के पास परेड में होने वाली रामलीला का वर्णन किया है, जिससे प्रतीत होता है कि उस समय कटरा रामलीला ही मुख्य आयोजन हुआ करता था। चैथम लाइन से जब छावनी में सैनिक चले गए तो यहां का आयोजन गोस्वामी परिवार ने ले लिया। बाद में यहां अन्य व्यापारी जुड़कर रामलीला को आयोजित करने लगे।
शाहगंज में रहने वाले बाबा हाथीराम ने सर्वप्रथम शाहगंज में रामलीला का मंचन शुरू किया। दशहरे पर वह अपने कंधे पर बिठाकर राम और लक्ष्मण की सवारी निकालते थे। धीरे धीरे विस्तार हुआ भीड़ बढ़ने लगी तो कल्याणी और सदियापुर के बीच कुम्हार जहां अपने कच्चे बर्तनों को पकाते थे, वहां जमीन ली गई। बर्तनों को पकाने की प्रक्रिया को "पजावा" कहा जाता है। इसलिए बाद में इसे "पजावा रामलीला मैदान" कहा जाने लगा। महंत हाथीराम वैष्णो साधु थे। उनके साथ रानी मंडी मालवीय नगर के खत्री परिवार भी जुट गए और बाद में इसका प्रबंधन इन्हीं के हाथ में आ गया।
पत्थर चट्टी रामलीला कमेटी की शुरुआत कायस्थ बेनी प्रसाद ने करायी। कड़े रहने वाले बेनी प्रसाद अधिवक्ता थे। उत्सव धर्मिता उनमें कूट-कूट कर भरी थी। मलाका के निकट पत्थर चट्टी का मैदान था। यहां पर उन्होंने रामलीला शुरू कराई। पत्थरचट्टी नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यहां पर पत्थर की चटिया रखी जाती थी।
बाबा हाथीराम नवमी और दशमी के दिन शाहगंज में भगवान राम की सवारी निकालते थे। दसवीं के दिन ककहरा घाट पर रावण का दहन होता था। बाद में चौक में मशाल की रोशनी होती थी। ध्यान रहे उस समय बिजली नहीं होती थी, इसके बावजूद उत्सव और खुशी मनाने के लिए मशाल से पूरा क्षेत्र रोशन किया जाता था। बाबू बेनी राम के नाम से दूसरे दल का नाम भी बेनी राम पड़ गया। दशमी के दिन बेनी राम का दल निकलता था। मुट्ठीगंज से यह दल निकल कर भारती भवन होते हुए हाथीराम के दल के पीछे चौक पहुंचता था। वहां से ककहरा घाट जाता था। रावण दहन के बाद दोनों की ओर से रोशनी होती थी।
बेनी राम कायस्थ थे। उनके साथ अग्रवालों ने बड़ा योगदान दिया। दत्ती लाल अग्रवालों के अगुआ थे। इन्होंने धन एकत्र करके पत्थर चट्टी मैदान खरीद लिया और उसको रामबाग कहा जाने लगा। कालांतर में यही दोनों दल वृद्धि करते रहे।
प्रयागवालों ने दारागंज में दल की परंपरा शुरू की। दंगे के कारण बीच में दल की परंपरा रुक गई थी। अंग्रेजों से नजदीकी के कारण यहां पर बड़ी कोठी के लोगों ने बहुत ही सहयोग किया।
दारागंज में सप्तमी के दिन दल निकलता है, जबकि कटरा में अष्टमी और पजावा रामलीला कमेटी का हनुमान दल नवमी तथा दशमी को पत्थरचट्टी का दल दशमी को अब भी निकलता है। वर्तमान में भरद्वाज पुरम और सिविल लाइन का भी दल निकलने लगा।
(शेयर करें, मूल लेख है चोरी ना करें-
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