पद छोड़ने का सदमा और दु:ख, समझें राहुल और सोनिया के बयानों से...
पद छोड़ना आसान नहीं है गालिब-
दम निकल जाता है, जब पद चला जाता है !
(धर्म नगरी / DN News M./W.app 6261868110) -अनुराधा त्रिवेदी**
लोकतंत्र में चुनाव का बडा महत्व होता है, किसी पार्टी का संगठनात्मक चुनाव हो या किसी प्रदेश की सरकार चुनने का। लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित संगठन और सरकार ही सर्वमान्य होते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस समय बेहद नाजुक दौर से गुजर रही है। एक तरफ भाजपा के लगातार देश में बढते ग्राफ से कांग्रेस लगभग खात्मे की ओर बढ़ रही है। कांग्रेस ने सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद क्लेश बढ़ गया है। बड़ी अलग सी स्थितियां और बयान नजर आने लगी हैं।
भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से कांग्रेस पर लगातार परिवारवाद को लेकर तीखे हमले के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष नहीं बनने का फैसला लिया था। राहुल की अनिक्षा के बाद भी सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बन गईं। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा दोनों ही चाहते थे, कि परिवार से बाहर किसी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाए, लेकिन शायद यह बात सोनिया को स्वीकार्य नहीं थी, कि गांधी परिवार से बाहर किसी के पास पार्टी की कमान हो। दरअसल, पार्टी के भीतर का एक बड़ा कुनबा जिसे सोनिया गांधी का करीबी माना जाता है, वह राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद हासिए पर चला गया था। पार्टी के किसी भी फैसले पर उनसे कुछ भी नहीं पूंछा जाता था और उनका रोल पार्टी में बेहद सीमित हो गया था।
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राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के साथ ही यह ग्रुप सक्रिय हो गया और लगातार सोनिया गांधी के संपर्क में भी था। सोनिया गांधी के साथ-साथ यह धड़ा चाहता था, कि पार्टी की कमान दोबार सोनिया के पास रहे। इसी तरह कांग्रेस के भविष्य की पूरी पटकथा लिखी गई।
मजे की बात ये है, कि 23 पूर्व कांग्रेसी द्वारा नेतृत्व परिवर्तन के लिए लिखे पत्र ने एक तरह से आग लगा दी। पद छोड़ने का सदमा और दुख कितना होता है, यह राहुल और सोनिया के परस्पर बयानों से समझा जा सकता है। राहुल गांधी ने पत्र के पीछे कुछ वरिष्ठ कांग्रेसियों को लपेटते हुए भाजपा से सांठगांठ का आरोप लगाया। वहीं सोनिया ने कहा, कि मैं अस्पताल में थी। ऐसे समय में पत्र लिखकर गांधी परिवार के समर्पण, त्याग, बलिदान और नेतृत्व पर पत्र लिखना अनुचित था। यह सही समय नहीं था।
यदि इसको सामान्य बोलचाल की भाषा में समझा जाए, तो ये प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर की तरह आचरण लगता है। चूंकि, परिवार ने त्याग और बलिदान किया है, चूंकि आजादी के बाद से इस परिवार का देष पर कब्जा रहा है, तो फिर कोई ये कैसे सोच सकता है, कि पार्टी की भलाई के लिए कोई बाहरी व्यक्ति अध्यक्ष पद पर बैठे। ये तो सख्त नागवार गुजरने वाली बात है।
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सोनिया गाँधी व सीताराम केसरी : फोटो साभार: BBC |
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कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, आनन्द शर्मा : (धर्म नगरी) |
उससे इस परिवार का महत्व बढ़ गया। सोनिया भी जानती हैं, कि बाहरी व्यक्ति को अध्यक्ष पद देना गांधी परिवार को हासिये पर भेजने जैसा है। पिछले दो-तीन दिन के घटना क्रम में जैसा ट्वीटर वॉर और पलटवार देखने में आया, वो कांग्रेस में "सबकुछ ठीक नहीं है" का संकेत देता है। इन तमाम विवादों, पत्र-बम, ट्वीटर वॉर के बाद अंततः सोनिया पुनः जनवरी तक अंतरिम अध्यक्ष बन गईं। ये सबकुछ हो भी इसीलिए रहा था।
मंगलवार को सबसे पहले कपिल सिब्बल ने अपने तेवर का इजहार किया। उन्होंने बिना किसी पृष्ठभूमि के ट्विटर पर लिखा, ‘किसी पोस्ट की कोई लालसा नहीं है, मेरे लिए मेरा देश सबसे अहम है।’ ध्यान रहे कि सोमवार को भी उन्होंने तब राहुल गांधी का नाम लेते हुए तीखी प्रतिक्रिया जताई थी जब यह अटकलें लगी थीं कि राहुल ने इन नेताओं पर भाजपा से साठगांठ का आरोप लगाया है। हालांकि बाद में सिब्बल ने इस ट्वीट को हटा लिया था।
राहुल पिछले दो बार से अध्यक्ष नहीं बनने की जिद ठाने हुए हैं। इसके पीछे की रणनीति आप समझिए, कि यदि बाहरी व्यक्ति अध्यक्ष बनता है तो इस इस पद को संभालना उसके लिए बहुत भारी होगा। असफलताओं का ठीकरा उसी के सिर फोड़ा जाएगा और अध्यक्ष पद पर रहते हुए उसको कितनी स्वतंत्रता गांधी परिवार से मिलेगी, ये कहना बहुत मुश्किल है। ऐसी स्थिति में पुनः परिक्रमावासी-नेता राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की जोर-शोर से मांग उठाएंगे। अंततः, आज नहीं तो कल, कमान गांधी परिवार के हाथों ही आनी है।
-**प्रबंध संपादक -धर्म नगरी, DN News हैं
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