श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : तिथि पर किए व्रत के प्रभाव से संतान प्राप्ति व मनोकामना पूर्ति, "अष्टमी" के निर्णय में मतभेद क्यों ?
गर्भ की रक्षा के लिए जन्माष्टमी पर बनाएं गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र
खीरे का प्रयोग पूजा में क्यों ?
ये है कान्हा को प्रिय
अष्टमी के प्रकार (जन्मष्टमी तिथि में मतभेद पर )-
श्री कृष्ण चालीसा
आरती
देवकी के आठवें पुत्र से ही कंस की मृत्यु क्यों ?
श्रीकृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?
श्रीकृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?
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-राजैश पाठक (अवैतनिक संपादक)
सनातन हिन्दू धर्म के पवित्र त्यौहारों में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है। भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की इसी अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण ने अवतार (जन्म) लिया था, इसलिए उनके बाल रूप की विधि-विधान से पूजा की जाती है। पुराणों के अनुसार, इस दिन जो भक्त पूरी श्रद्धा भाव से भगवान श्रीकृष्ण की विधि-विधान से पूजा करते है और व्रत रखते हैं, उसके फल या प्रभाव से, श्रीकृष्ण-कृपा से व्यक्ति की मनोकामना पूरी होती हैं। इस बार जन्माष्टमी की अष्टमी तिथि 18 अगस्त रात 9:21 बजे के बाद अष्टमी तिथि आरंभ हो जाएगी, जो 19 अगस्त की रात 10:59 बजे तक रहेगी। वहीं, रोहिणी नक्षत्र का आरंभ 19 अगस्त को रात्रि 01:54 बजे से होगा। ऐसे में इस वर्ष जन्माष्टमी पर अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र का संयोग नहीं बन पा रहा है। ज्योतिषियों एवं कर्मकांडी विद्वानों के अनुसार, गृहस्थों के लिए जन्माष्टमी का व्रत रखना उस दिन ही शुभ रहेगा, जिस रात को अष्टमी तिथि लग रही है। 18 अगस्त की मध्यरात्रि को व्यापनी अष्टमी तिथि होगी। वहीं, दूसरी तरफ साधु-संतों के लिए 19 अगस्त को जन्माष्टमी का व्रत रखना उचित होगा।
मथुरा-वृंदावन में सालों से पंरपरा रही है, कि भगवान कृष्ण जन्माष्टमी के जन्मोत्सव सूर्य उदयकालिक और नवमी तिथि विद्धा जन्माष्टमी मनाने की परंपरा है। इसलिए 19 अगस्त को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाया जाएगा, गृहस्थ संप्रदाय के लोग कृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं और वैष्णव संप्रदाय के लोग कृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं।
जन्माष्टमी को मनाने वाले दो अलग-अलग संप्रदाय के लोग होते हैं, स्मार्त और वैष्णव इनके विभिन्न मतों के कारण दो तिथियां बनती हैं। स्मार्त वह भक्त होते हैं, जो गृहस्थ आश्रम में रहते हैं। यह अन्य देवी-देवताओं की जिस तरह पूजा-अर्चना और व्रत करते हैं, उसी प्रकार कृष्ण जन्माष्टमी का धूमधाम से उत्सव मनाते हैं। उसी प्रकार वैष्णव जो भक्त होते हैं वे अपना संपूर्ण जीवन भगवान कृष्ण को अर्पित कर देते हैं। उन्होंने गुरु से दीक्षा भी ली होती है और गले में कंठी माला भी धारण करते हैं। जितनी भी साधु-संत और वैरागी होते हैं, वे वैष्णव धर्म में आते हैं।
जन्माष्टमी पर शुभ योग-
ध्रुव योग- 18 अगस्त 8:42 बजे से 19 अगस्त शाम 8:59 बजे
वृद्धि योग- 18 अगस्त रात 8:42 बजे तक
पूजन में रखें ध्यान-
- श्रीकृष्ण की सर्वाधिक प्रिय वस्तुओं में बांसुरी एक है। इसलिए पूजा में बांसुरी अवश्य रखें बांसुरी सरलता और मिठास का प्रतीक है,
- श्रीकृष्ण की सर्वाधिक प्रिय वस्तुओं में बांसुरी एक है। इसलिए पूजा में बांसुरी अवश्य रखें बांसुरी सरलता और मिठास का प्रतीक है,
- इस दिन भगवान श्रीकृष्ण को पीले और चमकीले वस्त्र पहनाएं। इसके साथ ही उनका ऐसा ही सुंदर सा आसन भी हो।
- इस दिन घर में राधा-कृष्ण का चित्र अवश्य रखें। ऐसा करने से प्रेम संबंध अच्छे होते हैं, साथ ही पूजा-स्थान पर कौड़ियां रखें। इससे धन की प्राप्ति होगी।
- पूजा के समय श्रीकृष्ण की मूर्ति के साथ गाय की मूर्ति अवश्य रखें। हिंदू धर्म में गाय को बहुत ही पूजनीय माना है। गाय में 33 प्रकार (कोटि) के देवी-देवता वास करते हैं,
- भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी के बिना भोग नहीं लगाते। इसलिए भोग में तुलसी अवश्य डालें,
- मोर पंख के बिना श्रीकृष्ण का श्रृंगार अधूरा रहता है। इसलिए श्रीकृष्ण के साथ मोर पंख अवश्य रखें। सम्मोहन व भव्यता का प्रतीक मोर पंख दु:खों को दूर कर जीवन में आनंद का सूचक है,
- कृष्ण को माखन मिश्री अत्यंत प्रिय है। जन्माष्टमी पर लड्डू गोपाल को माखन मिश्री का भोग लगाने से मनोकामनओं की पूर्ति होती है,
- जन्माष्टमी के दिन श्रीकृष्ण बाल स्वरूप में प्रकट होते हैं। उन्हें पालने या झूले में झुलाया जाता है। अतः पूजा में झूला अवश्य रखें, इससे परिवार में हर्षोल्लास रहेगा,
- श्रीकृष्ण विशेष रूप से वैजयंती की माला धारण किए रहते हैं। इसलिए पूजा के समय श्रीकृष्ण को वैजयंती की माला पहनाना न भूलें। वैसे घर में वैयजंती माला रखना बहुत शुभ माना जाता है,
- श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए घंटी भी रखें, इसकी ध्वनि से नकारात्मकता दूर होती है।
खीरे का प्रयोग पूजा में क्यों ?
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को खीरे का प्रयोग गर्भनाल के रूप में किया जाता है। जिस प्रकार बच्चा जब जन्म लेता है, तब उसे मां से अलग करने के लिए गर्भनाल को काटा जाता है, उसी प्रकार जन्माष्टमी के दिन खीरे को डंठल से काटकर अलग किया जाता है।यह एक प्रकार से श्रीकृष्ण को माता देवकी से अलग करने का प्रतीक है। ऐसा करने के बाद पूरे विधि-विधान से पूजा आरंभ की जाती है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को खीरे का प्रयोग गर्भनाल के रूप में किया जाता है। जिस प्रकार बच्चा जब जन्म लेता है, तब उसे मां से अलग करने के लिए गर्भनाल को काटा जाता है, उसी प्रकार जन्माष्टमी के दिन खीरे को डंठल से काटकर अलग किया जाता है।यह एक प्रकार से श्रीकृष्ण को माता देवकी से अलग करने का प्रतीक है। ऐसा करने के बाद पूरे विधि-विधान से पूजा आरंभ की जाती है।
ये है कान्हा को प्रिय-
मक्खन और मिश्री- भगवान श्रीकृष्ण बचपन में माखन बहुत खाते थे, क्योंकि ये उनको अत्यंत प्रिय है। यही कारण है, जन्माष्टमी के दिन पूजा में माखन और मिश्री का भोग जरूर लगाना चाहिए।
धनिया पंजीरी- ज्योतिष शास्त्र में धनिया का संबंध धन से बताया जाता है। धार्मिक मान्यता है,श्रीकृष्ण को धनिया की पंजीरी बहुत प्रिय है। जन्माष्टमी की पूजा में धनिया की पंजीरी का उपयोग अवश्य चाहिए। इस दिन लड्डू गोपाल को पंजीरी का भोग लगा सकते हैं।
गाय का घी- श्रीकृष्ण बाल्यावस्था में गाय की बहुत सेवा करते थे, क्योंकि उनको गाय से बहुत लगाव था। इसी कारण कान्हा को भोग लगाने वाले पंजीरी में गाय का घी अवश्य मिलाना चाहिए।
बांसुरी- बांसुरी भगवान कृष्ण के प्रिय वस्तुओं में से एक माना जाता है। जन्माष्टमी के दिन बांसुरी रखने से विशेष कृपा प्राप्त होती है।
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http://www.dharmnagari.com/2021/08/Janmashtami-2021-Shri-Krishna-Auspicious-Yoga-Rashi-Anusar-Bhog-Flute-Morpankh-Makhan-Mishri-etc.html
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अष्टमी के प्रकार-
जन्माष्टमी के काल निर्णय के विषय में मतभेद है। इसलिए उपासक अपने मनोनुकूल अभीष्ट योग चुनते हैं। शुद्धा और बिद्धा, इसके दो भेद धर्मशास्त्र में बतलाए गए हैं।
शुद्धा- सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय पर्यंत यदि अष्टमी तिथि रहती है तो वह 'शुद्धा' मानी जाती है। बिद्धा- सप्तमी या नवमी से संयुक्त होने पर वह अष्टमी 'बिद्धा' कही जाती है।
शुद्धा या बिद्धा भी समा, न्यूना या अधिका (के भेद से) तीन प्रकार की है। इन भेदों में तत्काल व्यापिनी (अर्धरात्रि में रहने वाली) तिथि अधिक मान्य होती है। कृष्ण का जन्म अष्टमी की अर्धरात्रि में हुआ था; इसीलिये लोग उस काल के ऊपर अधिक आग्रह रखते हैं। यदि वह दो दिन हो या दोनों ही दिन न हो, तो सप्तमी बिद्धा को सर्वथा छोड़कर नवमी बिद्धा का ही ग्रहण मान्य होता है। कतिपय वैष्णव रोहिणी नक्षत्र होने पर ही जन्माष्टमी का व्रत रखते हैं।
पूजन विधि-
अष्टमी को उपवास रखकर पूजन करने का विधान है तथा नवमी को पारण से व्रत की समाप्ति होती है। उपासक मध्याह्न में काले तिल मिले जल से स्नान कर देवकी जी के लिये सूतिकागृह नियत कर उसे प्रसूति की उपयोगी सामग्री से सुसज्जित करते हैं। इस गृह के शोभन भाग में मंच के ऊपर कलश स्थापित कर सोने, चाँदी आदि धातु अथवा मिट्टी के बने श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती देवकी की मूर्ति स्थापित की जाती है। मूर्ति में लक्ष्मी देवकी का चरण स्पर्श करती होती हैं। अनंतर षोडश उपचारों से देवकी, वसुदेव, बलदेव, श्रीकृष्ण, नंद, यशोदा और लक्ष्मी का विधिवत पूजन होता है। पूजन के अंत में देवकी को निम्न मंत्र से अर्ध्य प्रदान किया जाता है-
प्रणामे देवजननीं त्वया जातस्तु वामन:।
वसुदेवात् तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमोनम:
सपुत्रार्घ्य प्रदत्तं मे गृहाणेयं नमोऽस्तुते।।
भक्त श्रीकृष्ण के नालछेदन आदि आवश्यक कृत्यों का संपादन कर चंद्रमा को अर्ध्य देते हैं एवं शेष रात्रि को भगवत का पाठ करते हैं। दूसरे दिन पूर्वाह्न में स्नान कर, अभीष्ट तिथि या नक्षत्र के योग समाप्त होने पर पारण होता है। जन्माष्टमी 'मोहरात्रि' के नाम से भी प्रख्यात है और उस रात को जागरण करने का विधान है।
हे कृष्ण द्वारकावासिन् क्वासि यादवनन्दन। आपद्भिः परिभूतां मां त्रायस्वाशु जनार्दन।।
ॐ नमो भगवते तस्मै कृष्णाया कुण्ठमेधसे। सर्वव्याधि विनाशाय प्रभो माममृतं कृधि।।
'ॐ नमो भगवते श्री गोविन्दाय'
कृं कृष्णाय नमः
'ऊं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा'
'गोवल्लभाय स्वाहा'
जन्माष्टमी के दिन बछड़े सहित गाय की मूर्ति की पूजा करें। मान्यता है, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ऐसा करने से संतान से जुड़ी समस्या दूर हो जाती हैं,
इस दिन गाय की मूर्ति के साथ लड्डू गोपाल की भी पूजा करें। इससे संतान से जुड़ी समस्या दूर हो जाती है,
जन्माष्टमी के दिन 7 कन्याओं के बीच सफेद मिठाई या खीर बांटे। इससे नौकरी से जुड़ी समस्या में राहत मिलेगी।
जिस तरह प्रत्येक धर्म में उसका एक धार्मिक ग्रंथ होता है, उसी प्रकार से हिंदू धर्म में गीता को विशेष दर्जा दिया गया है. गीता के रूप में श्री कृष्ण ने इंसान को जीवन को जीने की कला सिखाई है. साथ ही कर्म का महत्व भी समझाया गया है .मान्यता है कि कृष्ण जन्माष्टमी के दिन श्री कृष्ण की चालीसा पाठ (Chalisa Path) करने से भगवान श्री कृष्ण की विशेष कृपा बनी रहती है और जीवन का हर दुख और विपत्ति समाप्त हो जाती है-
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श्री कृष्ण चालीसा
॥दोहा॥
बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम।
अरुण अधर जनु बिम्बा फल, पिताम्बर शुभ साज॥
जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज।
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥
चौपाई
जय यदुनन्दन जय जगवन्दन। जय वसुदेव देवकी नन्दन॥
जय यशुदा सुत नन्द दुलारे। जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥
जय नट-नागर नाग नथैया। कृष्ण कन्हैया धेनु चरैया॥
पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो। आओ दीनन कष्ट निवारो॥
वंशी मधुर अधर धरी तेरी। होवे पूर्ण मनोरथ मेरो॥
आओ हरि पुनि माखन चाखो। आज लाज भारत की राखो॥
गोल कपोल, चिबुक अरुणारे। मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥
रंजित राजिव नयन विशाला। मोर मुकुट वैजयंती माला॥
कुण्डल श्रवण पीतपट आछे। कटि किंकणी काछन काछे॥
नील जलज सुन्दर तनु सोहे। छवि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥
मस्तक तिलक, अलक घुंघराले। आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥
करि पय पान, पुतनहि तारयो। अका बका कागासुर मारयो॥
मधुवन जलत अग्नि जब ज्वाला। भै शीतल, लखितहिं नन्दलाला॥
सुरपति जब ब्रज चढ़यो रिसाई। मसूर धार वारि वर्षाई॥
लगत-लगत ब्रज चहन बहायो। गोवर्धन नखधारि बचायो॥
लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई। मुख महं चौदह भुवन दिखाई॥
दुष्ट कंस अति उधम मचायो। कोटि कमल जब फूल मंगायो॥
नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें। चरणचिन्ह दै निर्भय किन्हें॥
करि गोपिन संग रास विलासा। सबकी पूरण करी अभिलाषा॥
केतिक महा असुर संहारयो। कंसहि केस पकड़ि दै मारयो॥
मात-पिता की बन्दि छुड़ाई। उग्रसेन कहं राज दिलाई॥
महि से मृतक छहों सुत लायो। मातु देवकी शोक मिटायो॥
भौमासुर मुर दैत्य संहारी। लाये षट दश सहसकुमारी॥
दै भिन्हीं तृण चीर सहारा। जरासिंधु राक्षस कहं मारा॥
असुर बकासुर आदिक मारयो। भक्तन के तब कष्ट निवारियो॥
दीन सुदामा के दुःख टारयो। तंदुल तीन मूंठ मुख डारयो॥
प्रेम के साग विदुर घर मांगे। दुर्योधन के मेवा त्यागे॥
लखि प्रेम की महिमा भारी। ऐसे श्याम दीन हितकारी॥
भारत के पारथ रथ हांके। लिए चक्र कर नहिं बल ताके॥
निज गीता के ज्ञान सुनाये। भक्तन ह्रदय सुधा वर्षाये॥
मीरा थी ऐसी मतवाली। विष पी गई बजाकर ताली॥
राना भेजा सांप पिटारी। शालिग्राम बने बनवारी॥
निज माया तुम विधिहिं दिखायो। उर ते संशय सकल मिटायो॥
तब शत निन्दा करी तत्काला। जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥
जबहिं द्रौपदी टेर लगाई। दीनानाथ लाज अब जाई॥
तुरतहिं वसन बने ननन्दलाला। बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥
अस नाथ के नाथ कन्हैया। डूबत भंवर बचावत नैया॥
सुन्दरदास आस उर धारी। दयादृष्टि कीजै बनवारी॥
नाथ सकल मम कुमति निवारो। क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥
खोलो पट अब दर्शन दीजै। बोलो कृष्ण कन्हैया की जै॥
॥ दोहा ॥
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि।
अष्ट सिद्धि नवनिधि फल,लहै पदारथ चारि॥
आरती-
आरती कुंजबिहारी की,
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की
गले में बैजंती माला,
बजावै मुरली मधुर बाला ।
श्रवण में कुण्डल झलकाला,
नंद के आनंद नंदलाला ।
गगन सम अंग कांति काली,
राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली
भ्रमर सी अलक,
कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक,
ललित छवि श्यामा प्यारी की,
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
कनकमय मोर मुकुट बिलसै,
देवता दरसन को तरसैं,
गगन सों सुमन रासि बरसै,
बजे मुरचंग,
मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग,
अतुल रति गोप कुमारी की,
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की
गले में बैजंती माला,
बजावै मुरली मधुर बाला ।
श्रवण में कुण्डल झलकाला,
नंद के आनंद नंदलाला ।
गगन सम अंग कांति काली,
राधिका चमक रही आली ।
लतन में ठाढ़े बनमाली
भ्रमर सी अलक,
कस्तूरी तिलक,
चंद्र सी झलक,
ललित छवि श्यामा प्यारी की,
श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
कनकमय मोर मुकुट बिलसै,
देवता दरसन को तरसैं,
गगन सों सुमन रासि बरसै,
बजे मुरचंग,
मधुर मिरदंग,
ग्वालिन संग,
अतुल रति गोप कुमारी की,
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की
आरती कुंजबिहारी की...
जहां ते प्रकट भई गंगा,
सकल मन हारिणि श्री गंगा
स्मरन ते होत मोह भंगा
बसी शिव सीस,
जटा के बीच,
हरै अघ कीच,
चरन छवि श्रीबनवारी की,
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की
नि:संतान दंपत्ति रखते हैं व्रत-
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत सनातन हिन्दू धर्म में पवित्रतम व्रत में एक है। इस व्रत को विशेषकर वे महिलाएं रखती हैं, जो नि:संतान हैं। जन्माष्टमी का व्रत रखने से नि:संतान महिला को संतान की प्राप्ति होती है।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत सनातन हिन्दू धर्म में पवित्रतम व्रत में एक है। इस व्रत को विशेषकर वे महिलाएं रखती हैं, जो नि:संतान हैं। जन्माष्टमी का व्रत रखने से नि:संतान महिला को संतान की प्राप्ति होती है।
इस व्रत को रखने के लिए सुबह जल्दी उठकर स्नान करने के बाद स्वच्छ कपड़े पहन कर मंदिर में दीप जलाएं। इसके बाद सभी देवी-देवताओं का जलाभिषेक करें। इस दिन लड्डू गोपाल को झूले में बैठाकर दूध से इनका जलाभिषेक करें। फिर लड्डू गोपाल को भोग लगाएं। इस दिन यह सारी पूजा विधि विधान से रात्रि के समय करें, क्योंकि इस दिन रात्रि पूजा का महत्व होता है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म रात में हुआ था। इस दिन भगवान श्रीकृष्ण को खीर का भोग जरूर लगाएं।
जिनकी की कुंडली में चंद्रमा कमजोर होता है, उनके लिए यह व्रत करना बहुत ही लाभप्रद होता है साथ ही संतान प्राप्ति के लिए यह व्रत करना बहुत अच्छा होता है। इस दिन लोग उपवास भी रखते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी में पूजा के समय कुछ वस्तुएँ कृष्णजी के साथ अवश्य रखना चाहिए, क्योंकि इनके बिना कान्हा का स्वरूप अपूर्ण रहता है।
दीर्घायु और निरोगी उत्तम संतान की प्राप्ति प्रत्येक दंपती की इच्छा होती है, परन्तु कुछ स्त्रियों को संतान प्राप्ति में कठिनाई आती है। उनका गर्भ ठहरता नहीं अथवा कुछ ही सप्ताह में गर्भपात हो जाता है या जन्म लेने के बाद संतान की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। यह अत्यंत पीड़ादायक होता है।
ऐसी स्थिति में गर्भ की रक्षा के लिए श्रीमद्भागवत में भगवान कृष्णद्वैपायन व्यास ने एक अमोघ और चमत्कारिक उपाय बताया है। यह उपाय है गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र। यह एक प्रकार का सूत्र होता है जिस मंत्रों से अभिमंत्रित करके महिला को बांधा जाता है, जिससे गर्भ की रक्षा होती है। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरा के गर्भ की रक्षा के लिए इसी सूत्र का प्रतिपादन किया था। वैसे तो यह सूत्र किसी भी समय किसी भी काल में बनाया जा सकता है किंतु श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का दिन सर्वथा उपयुक्त है।
मंत्र-
अन्त:स्थ: सर्वभूतानामात्मा योगेश्वरो हरि:।
स्वमाययावृणोद् र्गभ वैराट्या: कुरुतन्तवे ।।
अर्थात, समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मा रूप से स्थित योगेश्वर श्रीहरि ने कुरुवंश की वृद्धि के लिए उत्तरा के गर्भ को अपनी माया के कवच से ढक दिया। मंत्र का प्रभाव उपरोक्त मंत्र उन कुलवधुओं के लिए चमत्कारिक रूप से काम करता है जिन्हें गर्भ तो रहता है किंतु पूर्ण प्रसव नहीं हो पाता, बीच में ही खंडित हो जाता है। यह उन महिलाओं के लिए भी कल्पवृक्ष के समान फलदाता है जिनको बच्चा सर्वागपूर्ण पैदा होता है किंतु जीवित नहीं रहता। इस महामंत्र का गर्भस्थ शिशु के मन पर भी बड़ा चमत्कारिक प्रभाव होता है। उसके संस्कार बदल जाते हैं, वह बुरी शक्तियों व बुरी दृष्टि (नजर), रोगादि से सुरक्षित रहता है। इस महामंत्र के प्रभाव से भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य आयुध उस महिला के गर्भ की रक्षा करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक श्रीवासुदेव सूत्र को धारण करती है। यह सूत्र बड़ा ही उग्र, साक्षात फलदाता है।
बनाएं गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र-
"गर्भरक्षक सूत्र" जिस सौभाग्वयती स्त्री के लिए बनाना हो उसके और सूत्र बनाने वाले के चित्त अत्यंत शुद्ध और पवित्र होने चाहिए। दोनों के मन में रक्षा सूत्र के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए। जिस महिला के लिए सूत्र बनाना हो, उसे स्नानादि के बाद शुद्ध वस्त्र पहनाकर भगवान श्रीकृष्ण के चरणोदक और तुलसीदल की प्रसादी दें। इसके बाद श्रीगणेश-गौरी का पूजन और नवग्रहों की यथाशक्ति शांति कराकर पूर्वाभिमुख खड़ी कर दें।
अर्थात, समस्त प्राणियों के हृदय में आत्मा रूप से स्थित योगेश्वर श्रीहरि ने कुरुवंश की वृद्धि के लिए उत्तरा के गर्भ को अपनी माया के कवच से ढक दिया। मंत्र का प्रभाव उपरोक्त मंत्र उन कुलवधुओं के लिए चमत्कारिक रूप से काम करता है जिन्हें गर्भ तो रहता है किंतु पूर्ण प्रसव नहीं हो पाता, बीच में ही खंडित हो जाता है। यह उन महिलाओं के लिए भी कल्पवृक्ष के समान फलदाता है जिनको बच्चा सर्वागपूर्ण पैदा होता है किंतु जीवित नहीं रहता। इस महामंत्र का गर्भस्थ शिशु के मन पर भी बड़ा चमत्कारिक प्रभाव होता है। उसके संस्कार बदल जाते हैं, वह बुरी शक्तियों व बुरी दृष्टि (नजर), रोगादि से सुरक्षित रहता है। इस महामंत्र के प्रभाव से भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य आयुध उस महिला के गर्भ की रक्षा करते हैं, जो श्रद्धापूर्वक श्रीवासुदेव सूत्र को धारण करती है। यह सूत्र बड़ा ही उग्र, साक्षात फलदाता है।
बनाएं गर्भरक्षक श्रीवासुदेव सूत्र-
"गर्भरक्षक सूत्र" जिस सौभाग्वयती स्त्री के लिए बनाना हो उसके और सूत्र बनाने वाले के चित्त अत्यंत शुद्ध और पवित्र होने चाहिए। दोनों के मन में रक्षा सूत्र के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास होना चाहिए। जिस महिला के लिए सूत्र बनाना हो, उसे स्नानादि के बाद शुद्ध वस्त्र पहनाकर भगवान श्रीकृष्ण के चरणोदक और तुलसीदल की प्रसादी दें। इसके बाद श्रीगणेश-गौरी का पूजन और नवग्रहों की यथाशक्ति शांति कराकर पूर्वाभिमुख खड़ी कर दें।
अब एक केसरिया रंग का रेशम का डोरा लें। रेशम के डोरे को मस्तक से पैर तक सात बार नाप लें। डोरा इतना लंबा हो किबीच में गांठ न बांधना पड़े। इसके बाद ऊपर दिए मंत्र के आदि में ऊं तथा अंत में स्वाहा बोलकर 21 बार जप करके माला की गांठ की भांति गांठ लगाते जाएं। इस प्रकार 21 गांठ लगाकर सूत्र की विधिवत वैष्णव मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठा और पूजन करें। इसके बाद शुभ समय में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए गर्भिणी और गर्भ की रक्षा की प्रार्थनाकर उस डोरे को वामहस्तमूल, गले अथवा अत्यंत पीड़ा के समय नाभि के नीचे कमर में बांध दें।
यदि इस वासुदेव सूत्र का निर्माण और बंधन विधिवत हो गया, तो गर्भ कभी नष्ट नहीं हो सकता। रेशम के डोरे के स्थान पर कुंवारी कन्या के द्वारा काता केसरिया रंग में रंगा कच्चा सूत भी ले सकते हैं। किंतु यह सूत अत्यंत महीन होता है। इसके टूटने का डर होता है। यदि सूत ले रहे हैं तो अत्यंत सावधानी रखनी होती है।
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----------------------------------------------------देवकी के आठवें पुत्र से ही कंस की मृत्यु क्यों ?
पहले दूसरे या तीसरे से क्यों नहीं...!
अन्तर्मन के निर्देश को ही कृष्ण कहा गया है। रात्रि को अविद्या कहा है। अज्ञान ही अंधकार है।अष्टमी का अर्थ है अष्टांग योग। द्वापर युग का अर्थ है जब अंतर्मन प्रकृति दो गुणों से परे हो जाये। रजो और तमो से परे हो जाये। द्वि + पर अर्थात द्वापर। जब दो गुणों से परे होंगे तो द्वापर आ गया। मोह ही कंस है। देह को ही कारावास कहा गया है। मनुष्य के अंतर्मन की देवी सम्पदी ही देवकी है। पुण्य ही वासुदेव है। जब मोह रुपी कंस ने देवी रूपी साधक को भय और अज्ञान के कारण देह रूपी कारावास में डाला तो गर्जना हुई कि मोह रूपी कंस का देवकी का आठवां पुत्र ही नाश करेगा।
यहाँ आठवां पुत्र और कोई नही बल्कि अष्टांग योग का अंतिम चरण है। मनुष्य जब यम, नियम, आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा अष्टांग योग को पूर्ण करता है तो देह रूपी जेल में भी कृष्ण रूपी अंतरात्मा का जन्म होता है। क्यों होता है ? कंस अर्थात मोह के नाश हेतु होता है। इसे ही जम्माष्टमी कहा है। अर्थात अष्टांगयोग का जन्म होना ही जन्माष्टमी है। जब तक अंदर योग के अंतिम चरण समाधि का जन्म नही होता है तब तक कंस रुपी मोह और अविद्या रूपी रात्रि निरन्तर तुम्हे निगलती रहेगी। युगों युगों से भटकते हुए आज फिर एक अवसर मिला है। बाहर की जन्माष्टमी के साथ साथ जिस दिन आंतरिक दैवीय जन्माष्टमी का उदय हो जाएगा, उस दिन तुम्हारे घर में कृष्ण की किलकारी होने लगेगी। वरना, यह जन्म भी निकल रहा है। निकल रहा है।
श्रीकृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?
भगवान श्रीकृष्ण के अनेक प्रचलित नाम हैं- श्याम, मोहन, बंसीधर, कान्हा और न जाने कितने, लेकिन इनमें से एक प्रसिद्ध नाम है लड्डू गोपाल। क्या आपको पता है भगवान कृष्ण का नाम लड्डू गोपाल क्यों पड़ा ?
ब्रज भूमि में बहुत समय पहले श्रीकृष्ण के परम भक्त रहते थे, जिनका नाम था कुम्भनदास जी।उनके एक पुत्र थे रघुनंदन।
कुंम्भनदास जी के पास बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण जी का एक विग्रह था, वे हर समय प्रभु भक्ति में लीन रहते और पूरे नियम से श्रीकृष्ण की सेवा करते। वे उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाते थे, जिससे उनकी सेवा में कोई विघ्न ना हो।
एक दिन वृन्दावन से उनके लिए भागवत कथा करने का न्योता आया। पहले तो उन्होंने मना किया, परन्तु लोगों के ज़ोर देने पर वे जाने के लिए तैयार हो गए, कि भगवान की सेवा की तैयारी करके वे कथा करके प्रतिदिन वापस लौट आया करेंगे व भगवान का सेवा नियम भी नहीं छूटेगा।
अपने पुत्र को उन्होंने समझाया, कि मैंने भोग बना दिया है, तुम ठाकुर जी को समय पर भोग लगा देना और वे चले गए। रघुनंदन ने भोजन की थाली ठाकुर जी के सामने रखी और सरल मन से आग्रह किया कि ठाकुर जी आओ भोग लगाओ। उसके बाल मन में यह छवि थी, कि वे आकर अपने हाथों से भोजन करेगें जैसे हम खाते हैं। उसने बार-बार आग्रह किया, लेकिन भोजन तो वैसे ही रखा था।
अब रघुनंद उदास हो गया और रोते हुए पुकारा- ठाकुरजी आओ भोग लगाओ। ठाकुरजी ने बालक का रूप धारण किया और भोजन करने बैठ गए और रघुनंदन भी प्रसन्न हो गया।
रात को कुंम्भनदास जी जब लौटे, तो उन्होंने रघुनंदन से पूछा- भोग लगाया था बेटा ?
रघुनंदन ने कहा हाँ। उन्होंने प्रसाद मांगा तो पुत्र ने कहा- ठाकुरजी ने सारा भोजन खा लिया।
उन्होंने सोचा बच्चे को भूख लगी होगी तो उसने ही स्वयं खा लिया होगा। फिर ये रोज का नियम हो गया, कि कुंम्भनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुरजी को भोग लगाते। जब प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि सारा भोजन उन्होंने खा लिया।
उन्होंने सोचा बच्चे को भूख लगी होगी तो उसने ही स्वयं खा लिया होगा। फिर ये रोज का नियम हो गया, कि कुंम्भनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुरजी को भोग लगाते। जब प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि सारा भोजन उन्होंने खा लिया।
तब कुंम्भनदास जी को लगा, कि पुत्र झूठ बोलने लगा है ! लेकिन क्यों ? उन्होंने उस दिन लड्डू बनाकर थाली में सजा दिए और छुप कर देखने लगे कि बच्चा क्या करता है ?
रघुनंदन ने रोज की तरह ही ठाकुरजी को पुकारा तो ठाकुरजी बालक के रूप में प्रकट हो कर लड्डू खाने लगे। यह देख कर कुंम्भनदास जी दौड़ते हुए आये और प्रभु के चरणों में गिरकर विनती करने लगे। उस समय ठाकुरजी के एक हाथ मे लड्डू और दूसरे हाथ का लड्डू मुख में जाने को ही था कि वे जड़ हो गए।
उसके बाद से उनकी इसी रूप में पूजा की जाती है और वे ‘लड्डू गोपाल’ कहलाये जाने लगे !
जय हो लड्डू गोपाल जी की !
आप सभी को राधे-राधे, जय श्रीकृष्णा -राजेशपाठक (अवैतनिक सम्पादक)
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