'स्वातंत्र्य कोकिला', 'काव्य सेनानी'-- सुभद्रा कुमारी चौहान, राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और...


...जेल यात्रा के बाद भी उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए
भारत सरकार ने 1976 में सम्मान में निकला डाक टिकट 
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-रा.पाठक अवैतनिक संपादक 

'स्वातंत्र्य कोकिला' और 'काव्य सेनानी' उपनामों से जानी जाने वाली आधुनिक हिंदी काव्य के क्षेत्र में सुभद्रा कुमारी चौहान का एक महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने न केवल देश की आजादी के लिए स्वतंत्रता आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, बल्कि अपनी कविताओं एवं कहानियों के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति लोगो को जागरूक भी किया।

सुभद्रा जी का जीवनकाल बहुत छोटा रहा, पर इस कम समय में भी वो सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में जिस निष्ठा और कर्मठता के साथ उतरीं, वह अप्रतीम है। एक ऐसे समय में जब सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी को लेकर बहस और मुहिम दोनों को तार्किक परिणाम तक पहुंचाने के लिए कई स्तरों पर संघर्ष चल रहे हैं, यह देखना बहुत रुचिपूर्ण है, कि आजादी के चार दशक पूर्व जन्म लेने वाली भारत की एक बेटी अपने देश के लिए कलम उठाती है और घर से बाहर निकलकर आंदोलनों में शिरकत करने का साहसिक निर्णय लेती है।

कविताओं में प्रखरता के साथ गूंजी राष्ट्रीयता निश्चित रूप पर उनकी रचनात्मकता का केंद्रीय स्वर है, पर स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार कारावास की यातना सहने के बाद उन्होंने जिस तरह अपनी अनुभूतियों को कहानियों में व्यक्त किया है, वह उनकी रचनात्मकता को समग्रता प्रदान करता है। चित्रात्मक व सरल भाषा और ऐसी ही आडंबरहीन शैली उनकी रचनात्मक सादगी को एक ऐसी विलक्षणता से भरता है, जिसने पाठकों के बीच लगातार उन्हें समादृत बनाए रखा है।

रचनाएँ
उन्होंने लगभग 88 कविताओं और 46 कहानियों की रचना की। किसी कवि की कोई कविता इतनी अधिक लोकप्रिय हो जाती है, कि शेष कविताई प्रायः गौण होकर रह जाती है। बच्चन की 'मधुशाला' और सुभद्रा जी की इस कविता के समय यही हुआ। यदि केवल लोकप्रियता की दृष्टि से ही विस्तार करें, तो उनकी कविता पुस्तक 'मुकुल' 1930 के छह संस्करण उनके जीवन काल में ही हो जाना कोई सामान्य बात नहीं है। इनका पहला काव्य-संग्रह 'मुकुल' 1930 में प्रकाशित हुआ। इनकी चुनी हुई कविताएँ 'त्रिधारा' में प्रकाशित हुई हैं। 'झाँसी की रानी' इनकी बहुचर्चित रचना है। राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और जेल यात्रा के बाद भी उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए-
'बिखरे मोती (1932), उन्मादिनी (1934), सीधे-सादे चित्र (1947) । इन कथा-संग्रहों में कुल 38 कहानियाँ (क्रमशः पंद्रह, नौ और चौदह)। सुभद्रा जी की समकालीन स्त्री-कथाकारों की संख्या अधिक नहीं थीं।

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स्त्रियों की प्रेरणा
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाते हुए, उस आनन्द और जोश में सुभद्रा जी ने जो कविताएँ लिखीं, वे उस आन्दोलन में एक नयी प्रेरणा भर देती हैं। स्त्रियों को सम्बोधन करती उनकी यह कविता-
"सबल पुरुष यदि भीरु बनें, तो हमको दे वरदान सखी।
अबलाएँ उठ पड़ें  देश  में,  करें  युद्ध  घमासान  सखी।
पंद्रह कोटि असहयोगिनियाँ,  दहला दें ब्रह्मांड सखी।
भारत लक्ष्मी  लौटाने को, रच दें  लंका काण्ड सखी।।"

राष्ट्रीय भाव-बोध से ओतप्रोत कविताएं 
हिन्दी काव्यधारा के विकास में जिस काल की कविताओं ने देश-समाज के बीच ऐतिहासिक रूप से एक जागरूक हस्तक्षेप के तौर पर कार्य किया, उसमें राष्ट्रीय भाव-बोध से ओतप्रोत कविताएं लिखे जाने का समय सबसे अहम है। हिंदी मन को नव-जागरण तक ले जाने वाले कवियों के बीच सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं की चर्चा करें तो इनकी लोकप्रियता आज तक बहाल है। यह किसी रचनाकार की स्वीकृति की दृष्टि से बड़ी बात है, कि वह अपने शब्दों के साथ सर्वकालिकता का यश प्राप्त करे।

यह थोड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा, कि हिंदी आलोचना ने उनके कृतित्व के मूल्यांकन में अपेक्षित रूचि नहीं दिखाई। प्रसिद्ध कवि गजानंद माधव मुक्तिबोध ने उन पर अवश्य लिखा, पर उनके कृतित्व के साथ उनके दुस्साहसिक व्यक्तित्व के बारे में सम्यक मूल्यांकन का कार्य अब भी शेष है।
मुक्तिबोध ने लिखा- सुभद्रा कुमारी चौहान साधारण महिलाओं की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती हैं। विशेषकर पर बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव उन्होंने जिस तरह व्यक्त किए, वह अनुपम और दुर्लभ है। उनकी शैली में वही सरलता, अकृत्रिमता और स्पष्टता है, जो उनके जीवन में है।

सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’, ‘कदम्ब का पेड़’ और ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ कविताएं हिंदी साहित्य जगत की कालजयी रचनाएं हैं

‘कदम्ब का पेड़’
यह कदंब का पेड़ अगर माँ , होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ  कन्हैया  बनता धीरे–धीरे

ले देतीं  यदि  मुझे  बांसुरी  तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके–चुपके आता
उस  नीची  डाली से अम्मा  ऊँचे पर  चढ़ जाता

वहीं  बैठ फिर  बड़े  मजे से  मैं  बांसुरी  बजाता
अम्मा–अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हें बुलाता

सुन मेरी वंशी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती
मुझे  देखने काम छोड़ तुम बाहर तक आती

तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
पत्तों में छिपकर धीरे से फिर बांसुरी बजाता

गुस्सा होकर मुझे डांटती, कहती नीचे आजा
पर जब मैं ना उतरता, हंसकर कहतीं ‘मुन्ना राजा’

नीचे उतरो मेरे भैया तुम्हें मिठाई दूंगी
नए खिलौने, माखन-मिसरी, दूध-मलाई दूंगी

मैं हंस कर सबसे ऊपर टहनी पर चढ़ जाता
एक बार ‘माँ’ कह पत्तों में वहीं कहीं छिप जाता

बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता

तुम आँचल फैला कर अम्मा वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मींचे

तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे–धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता

तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पाती

इस तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे–धीरे
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
 
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देश की सेना के लिए वसंत ऋतु कैसा हो) सुभद्रा जी ने लिखा-
‘वीरों का कैसा हो वसंत’
आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत !

‘झांसी की रानी’
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई  फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

तो भी रानी मार-काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

दाम्पत्य प्रेम
प्रेम की कविताओं में जीवन-साथी के प्रति अटूट प्रेम, निष्ठा एवं रागात्मकता के दर्शन होते हैं- 'प्रियतम से', 'चिन्ता', 'मनुहार राधे।', 'आहत की अभिलाषा', 'प्रेम श्रृखला', 'अपराधी है कौन', 'दण्ड का भागी बनता कौन' आदि उनकी बहुत सुन्दर प्रेम कविताएँ हैं। दाम्पत्य की रूठने और मनुहार करती 'प्रियतम से' कविता का अंश-
"ज़रा-ज़रा सी बातों पर
मत रूको मेरे अभिमानी
लो प्रसन्न हो जाओ
ग़लती मैंने अपनी सब मानी
मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझसे करो न प्यार।"

अपने और प्रिय और बीच किसी 'तीसरे' की उपस्थिति उनके लिए पूर्ण असहनीय है। 'मानिनि राध', कविता में व्यक्त यह आक्रोश पूरे साहित्य में विरल है-
"ख़ूनी भाव उठें उसके प्रति
जो हों प्रिय का प्यारा
उसके लिए हृदय यह मेरा
बन जाता हत्यारा।"

दाम्पत्य की विषम, विर्तुल और गोपन स्थितियों की जिस अकुंठ भाव से अभिव्यक्ति सुभद्रा कुमारी चौहान ने की है, वह बड़ी मार्मिक बन पड़ी है-
"यह मर्म-कथा अपनी ही है
औरों की नहीं सुनाऊँगी
तुम रूठो सौ-सौ बार तुम्हें
पैरों पड़ सदा मनाऊँगी
बस, बहुत हो चुका, क्षमा करो
अवसाद हटा दो अब मेरा
खो दिया जिसे मद जिसे मद में मैंने
लाओ, दे दो वह सब मेरा।"

जन्मदिन पर गूगल ने (2021) डूडल बनाकर किया नमन
इस गूगल डूडल (Google Doodle) को न्यूज़ीलैंड की कलाकार प्रभा माल्या ने तैयार किया। कलाकार ने डूडल में हाथ में कलम लिए साड़ी पहने बैठीं सुभद्रा कुमारी चौहान को दिखाया। सुभद्रा कुमारी चौहान के चित्र की पृष्ठभूमि में घोड़े पर सवार महारानी लक्ष्मीबाई और आज़ादी की मांग में जुलूस निकालते लोगों के चित्रों को उकेरा गया
प्रयागराज में जन्म 
नागपंचमी के दिन 16 अगस्त, 1904 को उनका जन्म प्रयागराज के निहालपुर में जमींदार परिवार में हुआ। सुभद्रा जी ने 9 साल की उम्र में अपनी पहली कविता ‘नीम’ लिखी थी। यह कविता ‘मर्यादा’ नाम की पत्रिका में छपी थी। उनकी पढ़ाई नौवीं कक्षा के बाद छूट गई, लेकिन इससे साहित्य में उनकी पकड़ कहीं से भी कम न हो पाई।

सन 1919 में लगभग 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह 'ठाकुर लक्ष्मण सिंह' से हुआ
 विवाह के पश्चात वे जबलपुर में रहने लगीं। सुभद्राजी अपने नाटककार पति लक्ष्मणसिंह के साथ विवाह के डेढ़ वर्ष के होते ही सत्याग्रह में सम्मिलित हो गईं। सनी 1922 का जबलपुर का झंडा सत्याग्रह देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्राजी पहली महिला सत्याग्रही के तौर पर इसमें सम्मिलित हुई। पति  
लक्ष्मण सिंह जैसे जीवनसाथी और माखनलाल चतुर्वेदी जैसा पथ-प्रदर्शक पाकर वो राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भाग लेती रहीं और कई बार जेल भी गईं। जेलों में ही जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण वर्ष  बिताए। गृहस्थी और नन्हे-नन्हे बच्चों का जीवन सँवारते हुए उन्होंने समाज और राजनीति की सेवा की। उनकी पाँच संताने हुईं- अजय चौहान, विजय चौहान एवं अशोक चौहान (पुत्र) और सुधा चौहान एवं ममता चौहान (पुत्री)।

15 फरवरी 1948 को मात्र 44 वर्ष की आयु में काल के क्रूर हाथों ने सुभद्रा जी को हमसे छीन लिया। उनकी मृत्यु पर माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा कि सुभद्रा जी का चल बसना प्रकृति के पृष्ठों पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों।

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