बसंत पंचमी : विद्या की देवी का दिन, किसी नए कार्य को आरंभ करने हेतु अत्यंत शुभ दिन...


बसंत या माघ पंचमी का पौराणिक व सांस्कृतिक महत्व भी है 

- बरसाने की लट्ठमार होली और बनारस की महाश्मशान की होली का शुभारंभ
- ज्ञान, संगीत, कला की उपासना से लेकर काम और मोक्ष का जीवंत उत्सव है ऋतुराज बसंत

धर्म नगरी
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-राजेश पाठक 

माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को विद्या की देवी मां सरस्वती का पर्व "बसंत पंचमी" मनाते हैं। इस वर्ष बसंत पंचमी का उत्सव 5 फरवरी 2022 है। इस विशेष दिन मां सरस्वती की विधि-विधान से पूजा होती है। इसी दिन बसंत ऋतु का आगमन होता है।

शास्त्रानुसार, मां सरस्वती का जन्म बसंत पंचमी के दिन ही हुआ था। इस दिन परिवार में छोटे बच्चों को पहली बार किताब और कलम पकड़ाने की भी मान्यता है। बसंत पंचमी का पर्व व पूजन सूर्योदय एवं मध्यान्ह काल के बीच में मनाते हैं। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार बसंत पंचमी का दिन अत्यंत शुभ होने के कारण इस दिन किसी नए कार्य का शुभारंभ भी किया जा सकता है। विद्या का आरंभ करने के लिए ये दिन सर्वश्रेष्ठ व सबसे शुभ माना गया है।

शुभ मुहूर्त व शुभ योग-

बसंत पंचमी के दिन अबूझ मुहूर्त रहता है, अर्थात बिना पंचांग देखे पूरे दिन में किसी भी समय अपने काम को कर दे सकते हैं। इस बार पंचमी 5 फरवरी शनिवार को है और पूजा मुहूर्त प्रातः 07:07 बजे से 12:35 तक है। अर्थात कुल शुभ मुहूर्त की अवधि 5 घंटे 28 मिनट होगी। 
आज बसंत पंचमी को "सरस्वती पूजा" हेतु सायं 5:42 बजे तक सिद्ध-योग है, जबकि रवि-योग सायं 4:09 बजे से बन रहा है इस दिन बुधादित्य-योग और केदार-शुभ योग भी बना हुआ है इस प्रकार इस वर्ष की बसंत पंचमी का दिन बहुत ही शुभ है
पूजा विधि-
आज माँ सरस्वती को पीले फूल, पीले वस्त्र, पीले फूलों की माला, खीर, मालपुआ, बेसन के लड्डू, अक्षत्, सफेद चंदन, पीला गुलाल, पीला रोली आदि अर्पित करें इसके साथ ॐ ऐं सरस्वत्यै ऐं नमः मंत्र का जाप करें सरस्वती वंदना एवं वसंत पंचमी की कथा का श्रवण करें उसके बाद हवन एवं माता सरस्वती की आरती करें

माँ सरस्वती को वरदान-
पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने मां सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था, कि वसंत पंचमी के दिन आपकी भी आराधना की जाएगी। बसंत पंचमी माघ महीने में शुक्ल पक्ष में मनाने के कारण इसे "माघ पंचमी" भी कहते हैं। विश्व में भले ही ऋतुओं का स्पष्ट वर्गीकरण न हो, परन्तु भारत में वर्ष को छह ऋतुओं में बाँटा जाता है। इनमें बसंत ऋतु, अर्थात जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों में सोने सी चमकने वाली सरसों के पीले फूलों की चादर सी बिछ जाती है, नाना प्रकार के मनमोहक फूलों से प्रकृति धरती का श्रृंगार करती है, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाता और हर ओर रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं है, कोयल की कूक से दिशाएँ गूँजने लगती हैं, तब बंसत ऋतु आरंभ होती है।
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प्रायः बसंत के बारे में नई पीढ़ी किताबों में पढ़ती है, क्योंकि दुर्भाग्य से नई पीढ़ी के लिए बसंत टीवी, मोबाइल, किताब, फ्लैट तक सिमट गया है। प्रकृति नई पीढ़ी की वैचारिक शक्ति ऐसी सिमट गई है, कि उनकी कल्पनाओं में भी ऐसा बसंत हो ! बसंत का दृश्य व उसका अनुभव क्रांकीट के जंगल (शहरों की अट्टालिकाओं में) में नहीं, प्रकृति की गोद में ही होगा। बसंत, बसंत पंचमी, मदनोत्सव, सरस्वती पूजा, होली की प्रारम्भिक शुरुआत, श्मशान में मौत के तांडव पर भारी जीवन का उत्सव- बसंत यह सब कुछ है। जीवन की व्यस्तता में खो चुकी आज की पीढ़ी एवं बच्चों को जीवन के उत्सव में, ऋतुराज बसंत को जानना चाहिए।

यूँ तो माघ का यह पूरा माह ही उत्साह से परिपूर्ण है, पर वसंत पंचमी का पर्व प्राचीन काल से ज्ञान और कला की देवी माँ सरस्वती की विशेष कृपा का दिन है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन माँ शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या ? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, वही महत्व विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास-पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बही खातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और माँ सरस्वती की वंदना से करते हैं।

पौराणिक मान्यता
बसंत ऋतु का सम्बन्ध प्रेम भाव से है, प्रेम को जिन्होंने हर रूप में अंगीकार किया ऐसे देव भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा का शाश्वत पाठ भी सनातन की ही देन है। शास्त्रों में बसंत पंचमी को "ऋषि पंचमी" के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन मान्यता है, कि सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों में प्रमुख मनुष्यों की रचना की। पर ब्रह्मा अपनी सर्जना से संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कहीं न कहीं कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु से अनुमति लेकर ब्रह्मा ने अपने कमंडल से जल छिड़का, पृथ्वी पर जल कण बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद वृक्षों के बीच से एक अद्भुत शक्ति का प्राकट्य हुआ।

यह प्राकट्य एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था, जिसके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा में था। अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। ब्रह्मा ने देवी से वीणा बजाने का अनुरोध किया। जैसे ही देवी ने वीणा का मधुरनाद किया, संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब ब्रह्मा ने उस देवी को वाणी की देवी सरस्वती कहा। वह दिन बसंत पंचमी का था। इसी कारण प्रत्येक वर्ष बसंत पंचमी के दिन "देवी सरस्वती का प्राकट्य उत्सव" मनाया जाने लगा और उनकी पूजा की जाने लगी।

माँ सरस्वती को बागेश्वरी, भगवती, शारदा, वीणा-वादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। मधुर संगीत और सुरों की सृजनकर्ता होने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात, ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।

बसंत को ऋतुराज या ऋतुओं का राजा कहने के पीछे रहस्य है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, बसंत कामदेव के मित्र हैं, कामदेव ही इस मौसम को अत्यन मनमोहक, मनभावन कर देते हैं। प्रायः कामदेव को प्रेम का देवता माना गया है। इन्हें राग वृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान और पुष्पधंव नामों से भी जाना जाता है। सनातन परम्परा में काम कभी वर्जित नहीं रहा, कामुकता सदैव मानवता का एक अभिन्न हिस्सा रही है, क्योंकि सके कारण ही आज मानवता का अस्तित्व है। अगर गुफा में रहने वाले मानव उसे त्याग देते, तो हमारा अस्तित्व नहीं होता। केवल भारतीय संस्कृति ही है, जहाँ खजुराहो और कोणार्क जैसे मंदिर हैं, जो काम पर विजय के प्रेरक हैं। मंदिर के बाहर यौनरत मुद्राएँ हैं, लेकिन कहीं भी मंदिर के भीतर इस तरह की कामोत्तेजक सामग्री नहीं है। यह प्रतीकात्मक रूप से हमेशा बाहरी दीवारों पर ही मिलेगी।

पारंपरिक रूप से बसंत पंचमी बच्चों के विद्यारम्भ के लिए शुभ है। इसलिए देश के अनेक भागों में इस दिन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का श्रीगणेश किया जाता है। बच्चे को प्रथम अक्षर यानी पहला शब्द लिखना और पढ़ना सिखाया जाता है। आन्ध्र प्रदेश में तो इसे विद्यारम्भ पर्व ही कहते हैं। पतंगबाज़ी का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है, लेकिन पतंग उड़ाने की परंपरा सदियों पहले चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा। और अब तो यह कई उत्सवों का हिस्सा हो गया है।

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बसंत अर्थात उत्सवों का मौसम
बसंत के आगमन के साथ ही होली, जो भारत का एक विशेष पर्व है, की औपचारिक शुरुआत बसंत पंचमी के दिन से ही हो जाती है। आज से ही रंगों-उमंगों का त्योहार रंगोत्सव ब्रज में आरंभ हो जाएगा। भारत तथा विभिन्न देशों में मनाया जाने वाला यह उत्सव अगले 50 दिन तक चलेगा। ब्रज में बसंत पंचमी के दिन मंदिरों में ठाकुरजी को गुलाल अर्पण कर, रसिया, धमार आदि होली गीतों का गायन प्रारम्भ हो जाता है और मंदिरों में दर्शन के लिए आने वाले भक्तों पर भी गुलाल के छींटे डाले जाते हैं।

प्राचीन परम्पराओं के अनुसार, मंदिरों में होली की तैयारियों के साथ ही आम समाज में भी होली का आगाज़ हो जाता है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णमासी की रात होलिका जलाए जाने वाले स्थानों पर होलिका के प्रतीक के रूप में रेड़ गाड़ दिया जाता है जो इस बात का भी प्रतीक है कि ब्रज में अब होली के पारम्परिक आयोजन शुरू हो गए हैं। इसी दिन, राधारानी के गाँव बरसाना में बैलगाड़ियों पर शोभायात्रा निकाली जाती है। महाशिवरात्रि पर दूसरी और फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन तीसरी शोभायात्रा निकाली जाती है। फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन बरसाना में लट्ठमार होली खेली जाती है जो ब्रज की 50 दिन चलने वाली होली का प्रमुख आकर्षण है।

लट्ठमार होली : फा फोटो 
बरसाने की लट्ठमार होली

फाल्गुन शुक्ल एकादशी को रंगपंचमी भी कहा जाता है। इस दिन वृन्दावन में ठाकुर बांकेबिहारी मंदिर सहित सभी मंदिरों में गुलाल के स्थान पर ठाकुरजी को टेसू के फूलों से बने रंग के छींटे देकर ब्रज में गीले रंगों की होली शुरू हो जाती है। यही रंग प्रसाद रूप में भक्तजनों पर भी छिड़का जाता है।
वाराणसी (काशी) की महाश्मशान होली : फाइल फोटो 
बनारस की महाश्मशान की होली
बनारस में इसी दिन बाबा विश्वनाथ दरबार में भी होली की शुरुआत होती है। महाकाल से लेकर महाश्मशान तक रंगों के उत्सव के रूप में बसंत की शुरुआत मृत्यु के मंच पर जीवन का उत्सव मनाने की सीख महादेव की नगरी काशी की ही देन है।

उल्लेखनीय है, देवाधिदेव महादेव के काशी में महाश्मशान पर भी होली खेलने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। इस होली में अबीर और गुलाल नहीं, बल्कि जली हुई चिताओं की राख से होली खेली जाती है। चिता भस्म की इस होली का आयोजन वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर होता है, जिसमें काशीवासियों के साथ ही महाश्मशान पर रहने वाले अघोरी भी सम्मिलित होते हैं। एक तरह "खेले मशाने में होली, दिगम्बर खेले मशाने में होली" का संगीत बजता है और लोगों एक दूसरे के साथ भस्म और चिताओं की राख से होली खेलते हैं।

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