... जब चंदेरी के जौहरकुंड की अग्नि देख बाबर डर गया, उसकी बेगम दिलावर वहीं पर मूर्छित हो गई
आज के चुनिंदा पोस्ट्स, ट्वीट्स, वीडियो, कमेंट्स, वायरल...20220204
- चंदेरी का जौहर और बाबर का झूठ
- "यूपी में का बा का" का उत्तर- गाँधी की अंतिम इच्छा सरदार पटेल नेहरू के कारण पूरी नहीं कर पाए
- व्यंग : आम नागरिक के, राजनीति व नेताओं को लेकर...
- एक सनातन विरोधी और गद्दार
धर्म नगरी / DN News (Twitter & Koo- @DharmNagari)
चंदेरी का जौहर और बाबर का झूठ
चित्तौड़गढ़ में महारानी पद्मिनी सहित हजारों माताओं का अग्निकुंड में जौहर हम सभी जानते हैं, लेकिन चंदेरी मध्य प्रदेश मध्य के अशोकनगर जिले के चंदेरी में लगभग सोलह सौ से अधिक हिंदू माताओं का जौहर का इतिहास बहुत कम हिंदू जानते हैं। सन् 1528 में मालवा के शासक मेदिनी राय खंगार तथा आक्रांता बाबर के मध्य चंदेरी का युद्ध हुआ। इस युद्ध में वीरांगनाओं ने जौहर का मार्ग चुना। रानी मणिमाला सहित 1600 वीरांगनाएँ धधकती अग्नि में प्रवेश कर गईं। जनश्रुति है, जौहरकुंड की तेजस्वी अग्नि देखकर बाबर डर गया और बाबर की चौथी दिलावर तो उसी स्थान पर मूर्छित (बेहोश) हो गई।
बाबर युद्ध तो जीत गया, किंतु उसे दुर्ग में मिली केवल राख। वह राख, जो हवा के साथ दूर-दूर तक उड़ती हुई हिंदू वीर- वीरांगनाओं के अतुलनीय शौर्य की गाथा सुना रही थी। आज से 494 साल पहले 27 जनवरी 1528 की वह रात, जो ऐतिहासिक नगरी चंदेरी के इतिहास में अंकित है। उस काली रात में बाबर की नजर चंदेरी राज्य पर पड़ी थी।
भोर में किले के मुख्यद्वार पर ही भीषण युद्ध हुआ। चंदेरी के राजा मेदनी राय दुश्मनों की गर्दन काटते-काटते वीरगति को प्राप्त हो गए। राजा नहीं रहे और बाबर सेना के साथ किले के भीतर प्रवेश कर रहा है... यह सुन रानी मणिमाला ने 1600 क्षत्राणियों के साथ जौहर का निर्णय लिया। महल के भीतर ही कुंड में आग धधकी और एक-एक कर रानी मणिमाला के बाद क्षत्राणियां आग में कूदती चली गईं। जौहर की स्मृति (याद) में वहां पर एक स्मारक बनाया गया। हर वर्ष इस बलिदान का स्मरण करने 29 जनवरी को कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।
भारत का गौरवशाली इतिहास स्याही से नहीं, बल्कि हिन्दू वीरों के शोणित और तलवारों से लिखा गया है। इतिहास साक्षी है, हम हिन्दू कभी भी आक्रान्ताओं, हमलावरों, नीच मुसलमानों के सामने समर्पण नहीं किया। स्वर्ण सुंदरी के लोभी विदेशी जब-जब भारत की और बढे, हमारे वीरों ने उनका स्वागत लपलपाती तलवारों से किया। दुर्भाग्यवश यदि आक्रांताओं ने युद्ध क्षेत्र में तलवारों को जीत लिया और भारती के वीर हर-हर महादेव उद्घोष करते हुए बलिदान हो गए। राजमहिषी और वीरांगनाओं ने भी कभी दुश्मन के साथ समझौता नहीं किया, अपितु जय जय हर के नारों के साथ जौहर की आग का वरण कर अपने कुल और देश के स्वाभिमान की रक्षा की।
मध्य-युगीन इतिहास में चंदेरी का जौहर अब तक के इतिहास का सबसे विशाल जौहर माना जाता है। बाबर ने खानवा के युद्ध में राणा सांगा को परास्त कर हिन्दुओं के शक्ति केंद्र चंदेरी की और अपने लस्कर समेत कूच किया, तो खानवा में बाबर की ताकत का सामना कर चुके मेदनी राय खंगार और उनके वीरों ने झुकना स्वीकार नहीं किया। बाबर ने शेख गुरेन और अरायाश खां पठान को बारम्बार संधि के लिए चंदेरी भेजा। बाबर ने पहले चंदेरी के तत्कालीन राजा से यह किला मांगा। बदले में उन्होंने अपने जीते हुए कई किलों में से कोई भी किला देने की बात की, परंतु राजा ने चंदेरी का किला देने में मना करते हुए बाबर के लाख प्रलोभनों को नकार दिया। मेदनी राय ने किला देने की बजाय युद्ध करना स्वीकार किया। परिणाम को जानते हुए मेदनी राय खंगार ने बाबर की रण की हुंकार को सहर्ष स्वीकार किया।
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27 जनवरी 1528 की रात अंतिम पहर बीतने वाला था कि अचानक प्रहरियों को उत्तर दिशा की ओर से धूल का बवंडर चंदेरी की ओर बढ़ता दिखाई दिया। धीरे-धीरे घोड़ों की टाप तेज होती गईं और धूल का गुबार दुर्ग को घेर चुका था। मंत्रियों ने महाराज मेदिनी राय को सूचना दी कि बाबर चंदेरी के किले के पास तक तोपों से लैस सेना के साथ पहुंच चुका है। कुछ देर बाद एक प्रहरी राजा के पास बाबर का पत्र लेकर पहुंचता है।
युद्ध में सैकड़ों सैनिक मारे गए। यहां सिर्फ खून ही खून नजर आ रहा था। यहां इतना खून जमा हुआ कि इस स्थान को खूनी दरवाजा कहा गया। रानी के जौहर की खबर बाबर तक पहुंची तो वह तत्काल खून से सनी तलवार लेकर महल में दाखिल हुआ। जौहर कुंड तक पहुंचने के बाद बाबर ने यहां का जो मंजर देखा, उससे वह घबरा गया। कहा जाता है कि उसकी चौथी बेगम दिलाबर भी मौके पर पहुंची और जौहर देखकर बेहोश हो गई। 494 साल पहले जिस जगह पर यह जौहर हुआ आज भी वहां के पत्थर का कलर काला है।
चंदेरी का दुर्ग
चंदेरी किला शिवपुरी से 127 किमी, ललितपुर से 37 किमी, ईसागढ़ से लगभग 45 किमी और मुंगौली से 38 किमी की दूरी पर स्थित है। यह बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम में एक पहाड़ी पर स्थित है। चंदेरी पहाड़ियों, झीलों और जंगलों से घिरा हुआ है और बुंदेला, राजपूतों और मालवा के सुल्तानों के कई स्मारक हैं। चंदेरी का उल्लेख महाभारत में मिलता है। शिशुपाल महाभारत काल का राजा था।
चंदेरी किला शिवपुरी से 127 किमी, ललितपुर से 37 किमी, ईसागढ़ से लगभग 45 किमी और मुंगौली से 38 किमी की दूरी पर स्थित है। यह बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम में एक पहाड़ी पर स्थित है। चंदेरी पहाड़ियों, झीलों और जंगलों से घिरा हुआ है और बुंदेला, राजपूतों और मालवा के सुल्तानों के कई स्मारक हैं। चंदेरी का उल्लेख महाभारत में मिलता है। शिशुपाल महाभारत काल का राजा था।
32 मील की लम्बाई चौडाई में बसा चंदेरी नगर, बेतवा और उर नदी के घेर में तीन और से घिरा हुआ था और चौथी और विन्ध्य की उपत्यका प्रहरी रूप में प्रस्तुत थी। चंदेरी का किला 230 फीट ऊंची पहाड़ी पर बना हुआ था। यह जगह मालवा तथा बुंदेलखंड की सीमाओं पर होने से हमेशा महत्वपूर्ण रही है। पहाड़ियों से घिरा होने के कारण यह किला बेहद सुरक्षित माना जाता था।
| चंदेरी किले का बाहर दृश्य |
वीरभूमि का यह दुर्भाग्य रहा, कि मेदिनी राय खंगार को पुत्रवत स्नेह देने वाले महाराणा सांगा को चंदेरी युद्ध में पहुचने से पहले ही षड़यंत्र का शिकार बना लिया गया मेदिनी राय खंगार युद्ध क्षेत्र में अकेला पड़ गए। मेदिनी राय खंगार के नेतृत्व में स्वतंत्रता के शोलो को दिल में सहेजे वीरों ने मातृ-भूमि के लिए अपने प्राण दे दिए, बलिदान हो गए और महारानी मणिमाला सहित 1500 खंगार ललनाओं ने अपने शील, सतीत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अग्नि-कुंड में प्राणों की आहुति दे दी। जौहर की आग का वरण करते समय वीरांगना मणिमाला के तीर ने न केवल गद्दार हिम्मत सिंह की आँख फोड़ी, वरन बाबर की पगड़ी को भी धूल धूसरित किया।
चंदेरी के स्वाभिमान के आगे बाबर ने स्वयं को पराजित महसूस किया और विजय का उत्सव भी नहीं मनाया। प्रसिद्ध इतिहासकार श्रवण कुमार त्रिपाठी के अनुसार 28 जनवरी 1528 की रात चंदेरी में जौहर की रात थी। जौहर की आग को 15 कोस की दूरी तक देखा गया। जौहर की स्थिति का भान होते ही सुदूरवर्ती इलाकों की जनता ने वीरांगनाओं को श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। यह परंपरा आज तक विद्यमान है। उस महाचिता की शांत और अदृश्य आग से चिर सुहाग बलिदान आत्मोत्सर्ग का नूतन संदेशा मिलता रहेगा।
चंदेरी के जौहर की इस घटना को आज भी लोक साहित्य में अनुभव किया जा सकता है। गिलुआ ताल, जहाँ महारानी मणिमाला सहित वीर वसुंधरा की अनेकानेक मनिमुक्ताओं ने आत्मोत्सर्ग किया। बूढ़ी चंदेरी के उन घरों से जहाँ से स्वतंत्रता के मतवाले खंगार वीर अपने घरों में ताला डालकर मेदिनी राय खंगार के नेतृत्व में राष्ट्रधर्म की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति दी। आज भी इस गाथा को दोहरा रहे हैं। राष्ट्रधर्म और जुझारू संस्कृति की दिव्य आभा इतिहास के इस स्वर्णिम घटनाक्रम को आज भी प्रकाशमान किये हुए है...
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"यूपी में का बा का" (नेहा सिंह राठौर) का उत्तर... 🔥
हैं राम हमारे यू पी में
हैं श्याम हमारे यू पी में
शिव की काशी है यू पी मे
रहते सन्यासी यू पी में
ब्रज का पनघट है यू पी में
गंगा का तट है यू पी में
मोदी का मेला यू पी में
योगी का खेला यू पी में
अद्भुत अपनापन यू पी में
अद्भुत अल्हड़पन यू पी में
दशरथ के नंदन यू पी में
यशुदा के नंदन यू पी में
वेदों की वानी यू पी में
झांसी की रानी यू पी में
हैं सभी सयानें यू पी में
हैं देश दिवानें यू पी में
हम हिन्दू जिस दिन ठानेंगे
हम अपनीं करके मानेंगे
श्री राम नगरिया न्यारी है
मथुरा काशी की बारी है
जिनको बस सत्ता प्यारी है
यू पी उन सब पर भारी है
सम्मान मिलेगा यू पी में
फिर कमल खिलेगा यू पी में
हम उदासीनता त्यागेंगे
घर छोड़ विभीषण भागेंगे
यह यू पी है इंसानों का
यू पी है यह भगवानों का
जो भेद छिपा है बाबा में
वो भेद नहीं है का बा में
का बा सब का बा जायेंगे
यू पी में बाबा आयेंगे ।।
✍️ सुश्रुत त्रिपाठी "मयंक"
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महात्मा गाँधी की अंतिम इच्छा:
सरदार पटेल ने बहुत चाहा, पर नेहरू के कारण पूरी नहीं कर पाए
“मानसिक प्रताड़ना की इस प्रक्रिया को लंबा खींचना दर्दनाक है, मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती... उनका (नेहरू) रास्ता सुचारू बनाने के लिए मैं अपनी सीमा तक जा चुका हूँ, लेकिन मैंने पाया कि वह सब बेकार है और हम इसे केवल ईश्वर पर ही छोड़ सकते हैं।”
30 जनवरी 1948 की शाम को महात्मा गाँधी के पास सरदार पटेल मिलने के लिए आए। आपसी बातचीत में गाँधी ने पटेल से कहा, तुम दोनों (पटेल और जवाहरलाल नेहरू) में से किसी एक को मंत्रिमंडल से हट जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, “मैं इस दृढ़ निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मंत्रिमंडल में दोनों की उपस्थिति अपरिहार्य है। इस अवस्था में दोनों में से किसी एक का भी अपने पद से अलग होना खतरनाक साबित होगा।”
उन्होंने अपनी बात रखते हुए पटेल से कहा, “आज मैं इसी को प्रार्थना-सभा के भाषण का विषय बनाऊँगा। नेहरु प्रार्थना के बाद मुझसे मिलेंगे, मैं उनसे भी इसके बारे में चर्चा करूँगा। अगर जरूरी हुआ तो मैं सेवाग्राम जाना स्थगित कर दूँगा और तब तक दिल्ली नहीं छोडूँगा, जब तक दोनों के बीच फूट की आशंका को पूरी तरह समाप्त न कर दूँ।”
इस बातचीत के बाद गाँधी को प्रार्थना सभा में जाना था और उसके बाद उनसे नेहरू और आजाद भी पटेल के साथ आपसी मतभेदों के सिलसिले में मुलाकात करने वाले थे। दुर्भाग्यवश, ऐसा नहीं हो पाया और उसी दौरान गाँधी की हत्या हो गई। अब उनकी ‘अंतिम इच्छा’ के अनुसार, आपसी समन्वय स्थापित कर देश को सँभालने की जिम्मेदारी पटेल और नेहरू दोनों को स्वयं निभानी थी।
इस ‘अंतिम इच्छा’ के इतर एक अन्य पत्र पर गौर करना होगा, जो कि पटेल ने सी राजगोपालाचारी को अपने निधन से मात्र दो महीने पहले यानी 13 अक्टूबर 1950 को लिखा था। वे लिखते हैं, “मानसिक प्रताड़ना की इस प्रक्रिया को लंबा खींचना दर्दनाक है और हमें इसे अभी समाप्त करना होगा, क्योंकि मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती… उनका (नेहरू) रास्ता सुचारू बनाने के लिए मैं अपनी सीमा तक जा चुका हूँ, लेकिन मैंने पाया कि वह सब बेकार है और हम इसे सिर्फ ईश्वर पर ही छोड़ सकते हैं...।”
वी. शंकर अपनी पुस्तक ‘My reminiscences of Sardar Patel’ में सरदार की व्यवहार-कुशलता का स्मरण करते हुए लिखते हैं-
सरदार पटेल ने बहुत चाहा, पर नेहरू के कारण पूरी नहीं कर पाए
“मानसिक प्रताड़ना की इस प्रक्रिया को लंबा खींचना दर्दनाक है, मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती... उनका (नेहरू) रास्ता सुचारू बनाने के लिए मैं अपनी सीमा तक जा चुका हूँ, लेकिन मैंने पाया कि वह सब बेकार है और हम इसे केवल ईश्वर पर ही छोड़ सकते हैं।”
30 जनवरी 1948 की शाम को महात्मा गाँधी के पास सरदार पटेल मिलने के लिए आए। आपसी बातचीत में गाँधी ने पटेल से कहा, तुम दोनों (पटेल और जवाहरलाल नेहरू) में से किसी एक को मंत्रिमंडल से हट जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, “मैं इस दृढ़ निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मंत्रिमंडल में दोनों की उपस्थिति अपरिहार्य है। इस अवस्था में दोनों में से किसी एक का भी अपने पद से अलग होना खतरनाक साबित होगा।”
उन्होंने अपनी बात रखते हुए पटेल से कहा, “आज मैं इसी को प्रार्थना-सभा के भाषण का विषय बनाऊँगा। नेहरु प्रार्थना के बाद मुझसे मिलेंगे, मैं उनसे भी इसके बारे में चर्चा करूँगा। अगर जरूरी हुआ तो मैं सेवाग्राम जाना स्थगित कर दूँगा और तब तक दिल्ली नहीं छोडूँगा, जब तक दोनों के बीच फूट की आशंका को पूरी तरह समाप्त न कर दूँ।”
इस बातचीत के बाद गाँधी को प्रार्थना सभा में जाना था और उसके बाद उनसे नेहरू और आजाद भी पटेल के साथ आपसी मतभेदों के सिलसिले में मुलाकात करने वाले थे। दुर्भाग्यवश, ऐसा नहीं हो पाया और उसी दौरान गाँधी की हत्या हो गई। अब उनकी ‘अंतिम इच्छा’ के अनुसार, आपसी समन्वय स्थापित कर देश को सँभालने की जिम्मेदारी पटेल और नेहरू दोनों को स्वयं निभानी थी।
इस ‘अंतिम इच्छा’ के इतर एक अन्य पत्र पर गौर करना होगा, जो कि पटेल ने सी राजगोपालाचारी को अपने निधन से मात्र दो महीने पहले यानी 13 अक्टूबर 1950 को लिखा था। वे लिखते हैं, “मानसिक प्रताड़ना की इस प्रक्रिया को लंबा खींचना दर्दनाक है और हमें इसे अभी समाप्त करना होगा, क्योंकि मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती… उनका (नेहरू) रास्ता सुचारू बनाने के लिए मैं अपनी सीमा तक जा चुका हूँ, लेकिन मैंने पाया कि वह सब बेकार है और हम इसे सिर्फ ईश्वर पर ही छोड़ सकते हैं...।”
वी. शंकर अपनी पुस्तक ‘My reminiscences of Sardar Patel’ में सरदार की व्यवहार-कुशलता का स्मरण करते हुए लिखते हैं-
“(श्यामा प्रसाद) मुखर्जी की कलकत्ता की विजय वापसी, समझौता (नेहरु-लियाकत) और नेहरू के विरोध में समाचार-पत्रों की प्रतिक्रियाओं और जनता के कड़े विरोध से दिल्ली में सरकार घबरा गई थी। आशंका व्यक्त की गई कि अगर पंडित नेहरू पश्चिम बंगाल को समझौता बेचना चाहते हैं, जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था, तो उनका कड़ा विरोध होगा और उनके खिलाफ हिंसा तक हो सकती है। हालात ये हो गए, कि गोपालस्वामी आयंगर ने प्रधानमंत्री से कहा था कि कलकत्ता जाने के लिए सरदार को तैयार करें। इसके अनुसार, एक दिन सुबह नेहरू, सरदार से मिलने पहुँचे… उनकी (सरदार) नब्ज 90 से कुछ अधिक थी और वे कमजोरी महसूस कर रहे थे।
नेहरू ने हिचकते हुए अपना प्रस्ताव रखा। सरदार ने उन्हें अपनी सेहत के बारे में बताया और सुझाव दिया कि वे खुद ही चले जाएँ। इस पर नेहरू ने उन्हें कहा कि सामान्य धारणा है कि मेरे जाने से मुझ पर पथराव होगा। फिर उन्होंने (पटेल) कहा कि बेहतर स्वास्थ्य ना होने की स्थिति में इस बात के लिए दवाब डालते हुए बड़ा दुख हो रहा है, लेकिन उन्हें कोई विकल्प नहीं दिखाई दे रहा है, क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने समझौते के खिलाफ जनमत बना लिया है और सरदार ही उनका प्रभावशाली जवाब दे सकते हैं। वह (सरदार) जानते थे कि उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा और अप्रैल के मध्य में कलकत्ता के ख़राब मौसम की उन्हें जानकारी थी, लेकिन इसके बावजूद सरदार ने कलकत्ता जाने और समझौते के विरोध में बने माहौल को बदलने का भयंकर दायित्व स्वीकार करने पर अपनी सहमति दे दी।”
अतः इसमें कोई दो राय नहीं है कि पटेल ने आपसी मनमुटावों को समाप्त करने और गाँधी की ‘अंतिम इच्छा’ को पूरा करने का हर संभव प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे। हालाँकि, जब उन्होंने राजगोपालाचारी को बताया कि वे इस दौरान बहुत लम्बी मानसिक प्रताड़ना से भी गुजरे हैं। वास्तव में, यह कोई सामान्य घटना नहीं है, बल्कि किसी भी भारतीय के मन में कम-से-कम दो सवाल तो पैदा करती है – पहला, आखिर ‘महात्मा गाँधी की अंतिम इच्छा’ का सम्मान क्यों नहीं किया गया? और दूसरा क्या पटेल मानसिक रूप से इतने व्यथित हो गए थे कि वे बीमार रहने लगे और एक दिन इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए?
गाँधी के विश्वसनीय सहयोगी, प्यारेलाल अपनी पुस्तक ‘महात्मा गाँधी- द लास्ट फेज’ में लिखते हैं, “गाँधी की मृत्यु के बाद भी सरदार और पंडित नेहरू के बीच वैचारिक संघर्ष जारी रहा।” एन . वी. गाडगीळ अपनी पुस्तक में ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ में यह पुष्टि करते हैं कि मंत्रिमंडल दो गुटों में विभाजित था, जिसमें एक का नेतृत्व पटेल और दूसरे का नेहरू करते थे। उन्होंने अपनी इस आत्मकथा के पृष्ठ 177 पर पुनः लिखा है कि “दोनों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे।”
पटेल के साथ काम कर चुके वीपी मेनन, ‘This was Sardar the Commemorative volume I’ (सहसंपादक – मणिबेन पटेल, पटेल की पुत्री) में प्रकाशित अपने भाषण, ‘If Sardar were Alive Today!’ में कहते हैं, “एक बार मैं दिल्ली स्थित उनके घर गया। मैंने उन्हें एक ऑक्सीजन टेंट के नीचे लेटे देखा। अतः मैं दरवाजे पर खड़ा होकर सिगरेट पीने लगा। जब सरदार को मेरे आने का पता चल तो उन्होंने डॉक्टर से टेंट हटाने को कहा और मुझसे पूछा कि इस तरह गलियारे में क्यों खड़ा हूँ? मैंने उन्हें बताया कि मैं धुएँ से हवा को दूषित नहीं करना चाहता था। उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली में जवाब दिया, “मेनन, आप चिंता क्यों करते हैं? पूरी दिल्ली की हवा दूषित है। उनकी इस टिप्पणी में कुछ कडवाहट थी। उन्होंने अपने और प्रधानमंत्री के बीच मतभिन्नता को दिल पर ले लिया था।”
एक दिन नेहरू ने सार्वजनिक रूप से अधिकारियों के सामने पटेल को बेइज्जत कर दिया। यह घटना कब और कहाँ की है, इसकी जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं है, लेकिन पटेल अपनी बेइज्जती से इतना दुखी हुए कि उन्होंने इस घटना को 17 अक्टूबर 1950 को राजगोपालाचारी के साथ साझा किया था।
इसी दौरान पटेल को नेहरू का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने कहा था कि अब सरदार को अपने विभागीय काम नहीं देखने होंगे, बल्कि रियासती मंत्रालय गोपालस्वामी आयंगर और गृह मंत्रालय को वे स्वयं देखेंगे। वी शंकर इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “मैं अच्छी तरह से जानता था कि इस व्यवस्था से सरदार की वर्तमान स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा, उनका हृदय कमजोर हो जाएगा और गुर्दों पर भी असर होगा, इसलिए मैंने मणिबेन की सलाह से उन्हें यह पत्र न दिखाने का निश्चय किया। मुझे विश्वास था कि ऐसा करके मैंने सरदार को पंडित नेहरू के व्यवहार से होने वाली भावनात्मक पीड़ा और दुःख से बचा लिया, वरना उनकी हालत और बिगड़ जाती।”
अंततः गाँधी की हत्या से लेकर पटेल के ‘निधन’ तक दोनों के बीच संबंध तनावपूर्ण बने रहे। वी शंकर लिखते हैं, “सरदार अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण अधिक से अधिक समय अपने घर पर ही बिताते थे। उस दौरान दवाएँ असर नहीं कर रही थीं, जिसके कारण उनकी नब्ज बढ़ रही थी और वे कमजोरी महसूस कर रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं था कि मानसिक पीड़ा के कारण भी उनके स्वास्थ्य पर तेजी से असर पड़ रहा था।”
आखिरकार, जब बम्बई में पटेल का निधन हुआ तो नेहरू द्वारा एक ‘अशोभनीय’ आदेश जारी किया गया। दरअसल, उन्होंने मंत्रियों और सचिवों से उनके अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने से लिए न जाने का निर्देश जारी किया। के. एम. मुंशी अपनी पुस्तक ‘Pilgrimage to Freedom’ में लिखते हैं, उस समय मैं माथेरान (रायगढ़ जिला) के नजदीक था। श्री एनवी गाडगीळ, श्री सत्यनारायण सिन्हा और श्री वीपी मेनन ने निर्देश को नहीं माना और अन्त्येष्टि में शामिल हुए। जवाहरलाल ने राजेंद्र प्रसाद से भी बम्बई न जाने का आग्रह किया, जो कि एक अजीब अनुरोध था, जिसे राजेंद्र प्रसाद ने भी नहीं माना। अन्त्येष्टि में अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों में डॉ राजेंद्र प्रसाद, राजाजी और पंतजी (गोविन्द वल्लभ) और निसंदेह मैं भी शामिल था।”
वी शंकर लिखते हैं, “हमें बार-बार दिल्ली से सन्देश आ रहे थे और हम यह जानकर बहुत दुखी थे कि सरदार पटेल की अन्त्येष्टि में पहुँचने से रोकने के लिए बम्बई न जाने देने के लिए प्रयास किए जा रहे थे। हमें बताया गया कि मंत्रियों और राज्यपालों को भी रोका गया है।" स्वयं नेहरू ने भी प्रोविजनल पार्लियामेंट में 15 दिसंबर 1950 को पटेल के निधन का समाचार देते हुए कहा- “मैंने अपने सहयोगियों से कहा कि वे यही (दिल्ली में) रुके, सिवाय श्री राजगोपालचारी के, जो यहाँ हम सभी लोगों में शायद सरदार पटेल के सबसे पुराने सहयोगी और मित्र रहे हैं।"
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अमित शाह
पहला ऐसा बन्दा है,
जो "मुसलमान"
और "पाकिस्तान"
शब्द का खुल कर प्रयोग करता है
वर्ना बाकी लोग तो
"पड़ोसी मुल्क" और
"समुदाय विशेष" कह कर
काम चला लेते थे !!!!
😡👊😡👊
कांग्रेसी अधिरंजन चौधरी
कल बोला कि बिल में
अफगानिस्तान के जिक्र क्यों है ?
उसकी तो हमसे सीमा नही लगती है।
तब अमित शाह बोले
आप भूल सकते हैं
हम नहीं भूल सकते....
अफगानिस्तान की हमसे
160-km की सीमा लगती है. पीओके भी
हमारा है और पीओके के लोग भी हमारे है।
उधर इतना सुनते ही
इमरान खान कुर्सी से गिर पड़ा।
बोला साले इन कांग्रेसियों के
घरों पर 2, 4 बम फ़ुड़वाओ !!
साले खुद तो निपट ही गए हैं...
अब इन गुजरातियों को उंगली कर
कर के हमे भी निपटवा देंगे !!
😇😇😇😇😇😇
शाह और मोदी
इतिहास बनाने आए हैं,
सरकार बनाना
तो उनका पार्ट टाइम जॉब है।
😇😇😇😇😇😇
गृहमंत्री की पॉवर
Power या तो
सरदार पटेल जानते थे या
फिर अमित शाह जानते हैं,
बाकी सभी तो
गमले में गोभी उगाते थे
😇😇😇😇😇😇
पहले ट्रेनों के नाम होते थे ..
निजामुद्दीन एक्सप्रेस..
गरीब नवाज.
हजरतगंज.. अब होते हैं ...
रामायण... वंदेभारत ...महाकाल एक्सप्रेस
फर्क साफ है
समझने वालो के लिए
😇😇😇😇😇😇
काशी से...एक ट्रेन का
उद्घाटन प्रधानमंत्री ने किया
जिसका नाम महाकाल🚩 एक्सप्रेस रखा गया इस ट्रेन में
भगवान शिव के लिए कोच ..
B 4 में 64 नंबर की बर्थ आरक्षित...
सीट पर शिव मंदिर बनाया गया
तीनों ज्योतिर्लिंगों को
जोड़ने वाली
काशी-महाकाल एक्सप्रेस..
ये तीन धार्मिक स्थानों को
जोड़ेगी- वाराणसी में
काशी विश्वनाथ..
उज्जैन में महाकालेश्वर
और इंदौर के पास ओंकारेश्वर
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अभी मोदी को
समझना सब के बस की बात नहीं
मोदी को बहुत संघर्ष करना होगा
और मोदी संघर्ष कर भी लेगा,
परन्तु इस देश वासियों को
खासकर हिन्दुओं को
मोदी के साथ डट कर खड़ा रहना होगा,
क्योंक मोदी नें ये जंग अपनें लिये नहीं, बल्कि यह हमारे देशवासी बच्चों,
आनें वाली पीढियों और भारत के उज्जवल भविष्य के
लिए जंग छेड़ी हुई है।
हिन्दू हिषी पार्टी को समर्थन करते रहे...
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एक सनातन विरोधी और गद्दार
मौलाना मुहम्मद अली जौहर (10 दिसंबर 1878 - 4 जनवरी 1931) - एक सनातन विरोधी और गद्दार मुस्लमान जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों का अध्यक्ष रहा। भारत में खिलाफत आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से था।
मौलाना मुहम्मद अली जौहर (10 दिसंबर 1878 - 4 जनवरी 1931) - एक सनातन विरोधी और गद्दार मुस्लमान जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों का अध्यक्ष रहा। भारत में खिलाफत आंदोलन के प्रमुख नेताओं में से था।
मौलाना मुहम्मद अली जौहर 1920 में जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के संस्थापकों में से एक था और इसका प्रथम वाइस चांसलर था।
मोहम्मद अली जौहर जो सर सैयद अहमद ख़ान द्वारा चलाए गए अलीगढ़ आंदोलन का एक उत्पाद था । वह 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बना। वह मुस्लिम लीग के संस्थापकों में से एक था 1918 में वह मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बना।
कांग्रेस पार्टी के तीन अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली जौहर , मौलाना अबुल कलाम आजाद ,मुख्तार अहमद अंसारी ख़िलाफत आंदोलन के प्रमुख नेता थे।
आज़म खान ने 2006 में इसी के नाम पर अपनी युनिवर्सिटी बनाईं।
भारत में विभिन्न स्थानों का नाम मोहम्मद अली जौहर के नाम पर रखा गया है। इसमे शामिल है
मौलाना मुहम्मद अली (MMA) छात्रावास, मोहसिनुल-उल-मुल्क हॉल, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मौलाना मोहम्मद अली जौहर मार्ग, नई दिल्ली मुहम्मद अली रोड मुंबई मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय, रामपुर, उतर प्रदेशमौलाना मोहम्मद अली जौहर एकेडमी ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली
मुहम्मद अली जौहर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, एलेटिल, कालीकट जिला, केरल
मुस्लिम लीग का नेता होने के कारण पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इसके नाम पर अनेको संस्थानों और जगह का नाम है। पाकिस्तान ने तो इस पर डाक टिकट भी जारी किया था।
#साभार फेसबुक- Pushpendra Kulshrestha
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