ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव पर होता था दीपदान, उत्तर वैदिक काल में...
...ऊंचे बांस पर जलाते थे दीपक
- आज दीपदान का स्वरूप कैसे पहुंचा
त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अयोध्या लौटने, द्वापर में भगवान कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करने, श्रीहरि विष्णु द्वारा देवी लक्ष्मी को बलि की कैद से स्वतंत्र कराने जैसी धार्मिक मान्यताएं दीपावली के आरंभ होने की शुरुआत का कारण मानी जाती हैं। इसके साथ अनेक सामाजिक मान्यताएं भी हैं, जो इसे एक कृषक समुदाय के त्यौहार के रूप में स्थापित करती हैं। इन मान्यताओं के बीच भारतीय उपमहाद्वीप में दीपावली को मनाने का उल्लेख पिछले 2500 सालों की कई रचनाओं में आया है। अलग-अलग ग्रंथों, पुराणों, उपन्यासों, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृत्तान्तों और धार्मिक स्कॉलरों की रचनाओं में दीपावली उत्सव का उल्लेख है।
भारतीय संस्कृति पर शोध से यह ज्ञात होता है, कि प्राचीन काल में दीपावली का स्वरुप भिन्न था। दीपावली का वर्तमान स्वरूप है, वह पिछले 2-3 हजार सालों की कई परंपराओं के एक साथ समन्वित होने से लगभग पांच सदी पहले हुआ। ईसा पूर्व में इस उत्सव पर केवल दीपक जलाकर उजाला करने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। वहीं 500 ईस्वी तक इसमें नाच-गाने समेत कई सामाजिक गतिविधियां जुड़ गई। घरों की सजावट, मित्रों-परिजनों को उपहार देना, नए कपड़े पहनने जैसी परंपराएं भी 1000 ईसवी तक इस उत्सव में सम्मिलित हो गईं। दसवीं सदी के बाद इस उत्सव में लक्ष्मी पूजा व 14वीं सदी में पटाखे जलाने का उल्लेख प्राचीन रचनाओं में मिलता है।
दीपक जलाने प्राचीन उल्लेख
दीपक जलाने का (ऊंचे बांस पर) सबसे पुराना उल्लेख उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व) में मिलता है। शरदकालीन (वर्तमान दीपावली के समय में) दीपक को किसी ऊंचे बांस पर टांग दिया जाता था। शास्त्रों में यह विधान बहुत पुराना है, जिसके अनुसार, श्राद्ध पक्ष के बाद जब पूर्वज अपने लोकों की ओर लौटते हैं, तो उन्हें मार्ग दिखाने के लिए दीपकों को बहुत ऊंचाई पर टांगा जाता था। इन्हें आकाशदीप कहा जाता था।
ईसा पूर्व घरों की सजावट व कपड़े भेंट करने की परंपरा
सन 606 से 648 के बीच लिखे गए "नागानंद नाटक" में दीप प्रतिपदोत्सव का उल्लेख है। इस उत्सव में नवविवाहितों को उनकी पहली दिवाली पर कपड़े भेंट करने की परंपरा का उल्लेख है। यह नाटक कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने लिखा था।
पहली बार विदेशी यात्रियों द्वारा दीपावली का उल्लेख
अरब यात्री अलबरूनी ने 1030 ईस्वी में ‘तहकीक-अल-हिंद’ में दीपावली शब्द का उल्लेख करते हुए लिखा है- ‘इस दिन भारत में लोग नए कपड़े पहनते हैं, पान के पत्ते और सुपारी के साथ उपहार देते हैं, मंदिरों के दर्शन करते हैं, गरीबों को दान देते हैं और घर के हर कोने में रोशनी करते हैं।’ अलबरूनी ने इस दिन को वासुदेव की पत्नी लक्ष्मी और बाली की मुक्ति का दिन भी बताया है। उन्होंने इस दिन विवाह का भी उल्लेख किया है।
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संगमलाल त्रिपाठी "आजाद
दीपक जलाने प्राचीन उल्लेख
दीपक जलाने का (ऊंचे बांस पर) सबसे पुराना उल्लेख उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसा पूर्व) में मिलता है। शरदकालीन (वर्तमान दीपावली के समय में) दीपक को किसी ऊंचे बांस पर टांग दिया जाता था। शास्त्रों में यह विधान बहुत पुराना है, जिसके अनुसार, श्राद्ध पक्ष के बाद जब पूर्वज अपने लोकों की ओर लौटते हैं, तो उन्हें मार्ग दिखाने के लिए दीपकों को बहुत ऊंचाई पर टांगा जाता था। इन्हें आकाशदीप कहा जाता था।
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ईसा पूर्व कौमुदी महोत्सव में उल्लेख
कौमुदी महोत्सव में दीपदान का उल्लेख चाणक्य और चंद्रगुप्त के समय पाटलिपुत्र में कौमुदी महोत्सव मनाया जाता था। विद्वानों के अनुसार, यह उत्सव शरद पूर्णिमा को मनाया जाता था, जो कार्तिक अमावस्या (दीपावली) से 15 दिन पहले होती है। कुछ विद्वानों के अनुसार, संभवतः इसी दिन (शरद पूर्णिमा) को रावण पर विजय के पश्चात पुष्पक विमान से लंका से अयोध्या लौटे (मार्ग में अगस्त आदि ऋषि-मुनियों, विशेष स्थानों पर रुकते हुए)। तब इस महोत्सव में जलाशयों पर और नावों में दीपक जलाए जाते थे। 2000 साल पहले लिखे गए ‘सप्तशती’ में भी महिलाओं द्वारा स्थान-स्थान पर दीपक रखकर उत्सव मनाने का वर्णन है।
100 से 500 ईसवी
कार्तिक अमावस्या के दिन नाच-गाने और जुआ खेलने का उल्लेख 50 से 400 ईस्वी के मध्य (कार्तिक अमावस्या को) यक्षरात्रि के नाम से एक सामाजिक उत्सव मनाने की परंपरा थी। सर्वप्रथम इसका उल्लेख वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में मिलता है। इस उत्सव में नाच-गाने के साथ-साथ कुछ सामाजिक गतिविधियां होती थीं।
कुछ विद्वानों ने शोध में यक्ष रात्रि पर्व के बारे में बताया है, जिसके अनुसार, आज जिस दिन दीपावली मनाई जाती है, ठीक उसी दिन 500 ईस्वी के आसपास यक्ष रात्रि मनाई जाती थी और उस रात्रि सामाजिक गतिविधियों के साथ-साथ लोग जुआ भी खेलते थे।
कार्तिक अमावस्या के दिन नाच-गाने और जुआ खेलने का उल्लेख 50 से 400 ईस्वी के मध्य (कार्तिक अमावस्या को) यक्षरात्रि के नाम से एक सामाजिक उत्सव मनाने की परंपरा थी। सर्वप्रथम इसका उल्लेख वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में मिलता है। इस उत्सव में नाच-गाने के साथ-साथ कुछ सामाजिक गतिविधियां होती थीं।
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सन 606 से 648 के बीच लिखे गए "नागानंद नाटक" में दीप प्रतिपदोत्सव का उल्लेख है। इस उत्सव में नवविवाहितों को उनकी पहली दिवाली पर कपड़े भेंट करने की परंपरा का उल्लेख है। यह नाटक कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने लिखा था।
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