शक्ति स्वरूपा माँ सीता के हैं तीन स्वरूप..., जब ब्रह्माजी बोले- सीता ही वध करेगी
...जब लंका के राजा विभीषण घबराए श्रीराम की राजसभा में पहुचें
- पढ़ें, अद्भुत रामायण के अध्याय-25 में है "श्री सीता सहस्रनाम"
(धर्म नगरी / DN News)
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अथर्ववेदीय "सीतोपनिषद्" में माता सीता के स्वरूप का तात्विक विवेचन करते हुए उनको शक्ति-स्वरूपा बताया गया है। उनके तीन स्वरूप हैं- पहले स्वरूप में वे शब्द ब्रह्ममयी हैं, दूसरे स्वरूप में महाराज सीरध्वज (जनक) की यज्ञ-भूमि में हलाग्र (हल के अग्र भाग) से उत्पन्न तथा तीसरे स्वरूप में अव्यक्तस्वरूपा हैं। "शौनकीय तंत्र" नामक ग्रंथ के अनुसार, वे मूल प्रकृति कहलाने वाली आदिशक्ति भगवती हैं, जो इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति एवं साक्षात शक्ति, इन तीन रूपों में प्रकट हुई हैं।
ऋग्वेद में 'सीता' का अर्थ "पृथ्वी पर हल से जोती हुई रेखा" होने से सीता 'भूमिजा' तथा 'कृषि की अधिष्ठात्री देवी' भी कहलाईं। विदेहराज जनक की पुत्री होने से उन्हें 'वैदेही' तथा 'जानकी' भी कहा जाता है। जनक को वैदिक ऋषि एवं मिथिला नरेश दोनों रूपों में जाना जाता है। 'वाल्मीकि रामायण' में सीता को 'जनकानां कुले जाता' कहा गया है, परंतु इससे उनका जनक की पुत्री होना स्पष्ट नहीं होता।
पद्म पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण और ब्रह्मांड पुराण में सीता के पिता का नाम 'सीरध्वज' बताया गया है। भवभूति ने "उत्तर रामचरित" में 'सीरध्वज' शब्द का प्रयोग 'जनक' के पर्यायवाची के रूप में किया है। गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें आदर्श स्त्री और वात्सल्यमयी माता के रूप में, तो केशवदास एवं सेनापति ने सम्राज्ञी के रूप में प्रस्तुत किया है।
पौराणिक ग्रंथों में श्रीराम को ब्रह्म का स्वरूप बताया गया है, तो सीताजी को शक्ति का। ब्रह्म और शक्ति का सम्मिलन ही संपूर्ण सृष्टि है। शक्ति का स्वरूप होने पर भी सीताजी से क्षमा का गुण सीखा जा सकता है। फाल्गुन (अप्रैल-मई) माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि जानकी जयंती मनाते हैं। इसी दिन कालाष्टमी भी होती है।
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सीता जी परम साध्वी एवं पतिपरायणा हैं, जिन्होंने पति के सान्निध्य व सेवा के उद्देश्य से राज-भवन के विलासितापूर्ण जीवन को त्यागकर वनवास स्वीकार किया। 'सुंदरकांड' में प्रसंग है कि लंका में भयग्रस्त एवं कृशकाय सीता को संकट से मुक्त करने के लिए हनुमानजी ने उन्हें कंधे पर बैठाकर श्रीरामचंद्र के पास पहुंचा देने की आज्ञा मांगी। तब सीता ने रावण की जानकारी के बिना उन्हें उठाकर ले जाने को चोरी व बदले की कार्यवाही बताकर अनुचित ठहराया।
अग्नि-परीक्षा के समय सीता ने अग्निदेव से कहा- 'यदि मेरा हृदय एक क्षण के लिए भी श्रीराम से दूर हुआ हो, तो आप मुझे अपनी शरण में लेकर मेरी रक्षा कीजिए।' यह कहते ही वे अग्नि के भीतर समा गईं। फिर, अग्निदेव सीताजी को लेकर प्रकट हुए और बोले, 'सीता पवित्र हैं। मैं इन देवगणों की उपस्थिति में इन्हें आपको समर्पित कर रहा हूं।"
"कूर्मपुराण" के अनुसार, सीता अग्नि में समा गईं थीं और मायामयी सीता को ही रावण लंका ले गया था। रावण-वध के उपरांत माया-सीता अग्नि में विलीन हो गईं और वास्तविक सीता ने अग्नि से पुन: प्रकट होकर राम का सान्निध्य पाया। 'भावार्थ रामायण' के अनुसार, तेजस्विनी सीता के स्पर्श से रावण भस्म हो जाता, लेकिन यह अन्य राक्षसों के विनाश की दृष्टि से उचित नहीं होता। अत: सीताजी ने रावण के साथ?अपनी छाया भेजी। 'तुलसीकृत रामायण' में भी उल्लेख है, 'जौं लगि करौं निशचर नासा। तुम पावक महं करहुं निवासा।।'
वस्तुत: सीता व राम अभिन्न तत्व हैं (गिरा अरथ जल बीचि सम, कहिअत भिन्न न भिन्न)। एक ही दिव्य ब्रह्मज्योति सीता-राम के रूप में अभिव्यक्त है (एकं ज्योतिरभूदद्वेधा), अत: उनका विरह संभव नहीं। ब्रह्म से शक्ति कभी अलग नहीं हो सकती।
एक कथा है, निर्वासन के पश्चात पुन: अग्नि-परीक्षा को उन्होंने उचित नहीं माना और पृथ्वी से प्रार्थना की कि यदि मैं निष्कलंक हूं, तो आप स्वयं प्रकट होकर मुझे अपने अंक में स्थान दें। तभी अकस्मात पृथ्वी फट गई और भूदेवी सीता को अपने अंक में बैठाकर धरती में समा गईं।
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अयोध्या की राजसभा में विभीषण के पहुचने का प्रसंग
एक बार भगवान श्रीराम अयोध्या की राजसभा में बैठे थे। तभी लंका के राजा विभीषण घबराए हुए आए और बोले- “हे प्रभु! मुझे बचाइए। कुम्भकर्ण का बेटा मूलकासुर लंका में आतंक मचा रहा है। वह न मुझे जीने देगा और न लंका को बचने देगा।”
विभीषण ने पूरी बात बताते हुए कहा- मूलकासुर का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था, इसलिए उसका यह नाम रखा गया। जन्म के समय इसे अशुभ मानकर कुम्भकर्ण ने जंगल में छोड़ दिया। वहां मधुमक्खियों ने उसका पालन किया। बड़ा होकर उसने ब्रह्माजी को तपस्या से प्रसन्न कर वरदान लिया और बहुत शक्तिशाली बन गया।
जब उसे पता चला, कि श्रीराम ने उसके परिवार का नाश कर लंका जीत ली और विभीषण को राजा बना दिया, तब से वह गुस्से में लंका पर आक्रमण कर रहा है। विभीषण ने छह महीने तक युद्ध किया, परन्तु वरदान के कारण वह उसे नहीं हरा पाए और परिवार सहित भागकर अयोध्या आ गए।
प्रसंगानुसार, श्रीराम तुरंत सेना लेकर लंका पहुँचे। सात दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। हनुमान संजीवनी लाकर सैनिकों को बचाते रहे, फिर भी विजय कठिन लग रही थी।
तभी ब्रह्माजी प्रकट हुए और बोले- “रघुनंदन, इसे स्त्री के हाथों ही मृत्यु होगी। और एक शाप भी इसे मिला है, कि सीता ही इसका वध करेगी।”
भगवान राम ने हनुमान और गरुड़ को भेजकर सीता जी को बुलवाया। जब उन्हें सारी बात बताई गई, तो सीता का क्रोध भड़क उठा। उनके शरीर से एक भयानक छाया शक्ति प्रकट हुई- चण्डी रूप में सीता।
इधर राम की सेना ने मूलकासुर की गुफा में जाकर उसकी तांत्रिक साधना बिगाड़ दी। क्रोध में वह गुफा छोड़कर युद्धभूमि में आ गया। वहां उसने सीता के चण्डी रूप को देखा और घमंड से बोला- “मैं औरतों पर वार नहीं करता, तू हट जा।” लेकिन चण्डी रूप ने गरजकर कहा- “तूने मुनियों और ब्राह्मणों का वध किया है, मैं तेरी मृत्यु हूँ।”
भीषण युद्ध हुआ। अंत में चण्डी सीता ने चण्डिकास्त्र चलाकर मूलकासुर का सिर काट दिया। उसकी मृत्यु से राक्षस सेना भाग खड़ी हुई। लंका के लोग खुश होकर सीता माता की जयकार करने लगे। विभीषण ने भी उनका धन्यवाद किया। कुछ दिन लंका में रहकर श्रीराम और सीता पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आए।
अद्भुत रामायण में है "सीता सहस्रनाम" का उल्लेख
श्रीसीताष्टोत्तर शतनामावलिः श्रीमद्भुत रामायण के अध्याय-25 में सीता सहस्रनाम है। देवी सीता का महाकाली रूप धारण कर सहस्त्रमुखी रावण का वध करना। प्रसंग के अनुसार, रावण के वध के बाद लंका से लौटने के बाद कुछ ऋषियों और संतों ने श्रीराम के दर्शन किए। दस सिर वाले रावण को मारने के बाद लंका से अयोध्या आगमन पर उन्हें शुभकामनाएं दी।
तब देवी सीता मुस्कराने लगी। सबने उसका कारण पूछा, तो उन्होंने बताया, रावण की वास्तविक तामसिक शक्ति का केंद्र पुष्कर द्वीप में रहने वाला एक हजार मुख वाला सहस्त्रमुखी रावण है। जब तक उसका विनाश नहीं होगा, तब तक कोई न कोई रावण जैसी शक्ति उत्पन्न होती रहेगी।
तत्पश्चात श्रीराम उस रावण का वध करने पुष्पक विमान में बैठकर सीता, हनुमान, सुग्रीव और भाईयों आदि सहित युद्ध करने पुष्कर द्वीप जाते हैं। युद्ध होता है। उस युद्ध में श्रीराम घायल होकर मूर्छित हो जाते हैं।
तब माता सीता क्रोध में आकर दसमुखी महाकाली का विकराल और विराट रूप धारण करती है। हनुमान जी उनकी आज्ञा से ग्यारह मुखी एकादशमुखी हनुमान का रूप धारण करते हैं। महाकाली रूपी सीता एकादशमुखी हनुमान के मस्तक पर आरूढ़ सवार होकर युद्ध करती है। उनके शरीर से करोड़ों महाशक्तियों और महाविद्या योगिनीयो यक्षणियो भैरवियो आदि की उत्पत्ति होती है। सभी मिलकर युद्ध करते हैं सहस्त्रमुखी रावण महाकाली रूपी सीता देवी के मारा जाता है।
तब भी महाकाली का क्रोध शांत नहीं होता। उनसे उत्पन्न शक्तियां ब्रह्मांड में विचरण करने लगी और विनाश करने लगी। तब त्रिदेवों सहित देवता
भयभीत होकर श्रीराम से मूर्छा से जागकर सीता का क्रोध शांत करने का अनुरोध करते हैं। तब श्रीराम माता सीता रूपी महाकाली की एक हजार नामों से निम्न स्तुति करते हैं। यही प्रसंग अद्भुत रामायण में लिखा है-
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं भगवती जानकी राघवेन्द्रप्रियायै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं सीतायै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं सीतायै रामपत्न्यै नमः
ॐ अयोनिजायै च विदमहे वैदेही च धीमहि तन्नो जानकी प्रचोदयात्।
ॐ भूमिसुतायै च विदमहे रामपत्न्यै च धीमहि तन्नो सीता प्रचोदयात्।
भयभीत होकर श्रीराम से मूर्छा से जागकर सीता का क्रोध शांत करने का अनुरोध करते हैं। तब श्रीराम माता सीता रूपी महाकाली की एक हजार नामों से निम्न स्तुति करते हैं। यही प्रसंग अद्भुत रामायण में लिखा है-
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं भगवती जानकी राघवेन्द्रप्रियायै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं सीतायै नमः
ॐ श्रीं ह्रीं सीतायै रामपत्न्यै नमः
ॐ अयोनिजायै च विदमहे वैदेही च धीमहि तन्नो जानकी प्रचोदयात्।
ॐ भूमिसुतायै च विदमहे रामपत्न्यै च धीमहि तन्नो सीता प्रचोदयात्।
|| श्री सीता सहस्रनाम स्तोत्रम् ||
ध्यानम् ।
सकलकुशलदात्रीं भक्तिमुक्तिप्रदात्रीं
त्रिभुवन जनयित्रीं दुष्टधीनाशयित्रीम् ।
जनकधरणि पुत्रीं दर्पिदर्प प्रहन्त्रीं
हरिहरविधिकर्त्रीं नौमि सद्भक्तभर्त्रीम्॥
सकलकुशलदात्रीं भक्तिमुक्तिप्रदात्रीं
त्रिभुवन जनयित्रीं दुष्टधीनाशयित्रीम् ।
जनकधरणि पुत्रीं दर्पिदर्प प्रहन्त्रीं
हरिहरविधिकर्त्रीं नौमि सद्भक्तभर्त्रीम्॥
|| श्री सीता सहस्रनाम स्तोत्रम् ||
ध्यानम्
सकलकुशलदात्रीं भक्तिमुक्तिप्रदात्रीं
त्रिभुवनजनयित्रीं दुष्टधीनाशयित्रीम् ।
जनकधरणि पुत्रीं दर्पिदर्पप्रहन्त्रीं
हरिहरविधिकर्त्रीं नौमि सद्भक्तभर्त्रीम् ॥
ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा रामः कमललोचनः ।
प्रोन्मील्य शनकैरक्षी वेपमानो महाभुजः ॥१॥
प्रणम्य शिरसा भूमौ तेजसा चापि विह्वलः ।
भीतः कृताञ्जलिपुटः प्रोवाच परमेश्वरीम् ॥२॥
का त्वं देवि विशालाक्षि शशाङ्कावयवाङ्किते ।
न जाने त्वां महादेवि यथावद्ब्रूहि पृच्छते ॥ ३॥
रामस्य वचनं श्रुत्वा ततः सा परमेश्वरी ।
व्याजहार रघुव्याघ्रं योगिनामभयप्रदा ॥ ४ ॥
मां विद्धि परमां शक्तिं महेश्वरसमाश्रयाम् ।
अनन्यामव्ययामेकां यां पश्यन्ति मुमुक्षवः ॥ ५॥
अहं वै सर्वभावानामात्मा सर्वान्तरा शिवा ।
शाश्वती सर्वविज्ञाना सर्वमूर्तिप्रवर्तिका ॥ ६ ॥
अनन्तानन्तमहिमा संसारार्णवतारिणी ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे पदमैश्वरम् ॥ ७॥
इत्युक्त्वा विररामैषा रामोऽपश्यच्च तत्पदम् ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशं विष्वक्तेजोनिराकुलम् ॥ ८॥
ज्वालावलीसहस्राढ्यं कालानलशतोपमम् ।
दंष्ट्राकरालं दुर्धर्षं जटामण्डलमण्डितम् ॥ ९ ॥
त्रिशूलवरहस्तं च घोररूपं भयावहम् ।
प्रशाम्यत्सौम्यवदनमनन्तैश्वर्यसम्युतम् ॥ १० ॥
चन्द्रावयवलक्ष्माढ्यं चन्द्रकोटिसमप्रभम् ।
किरीटिनं गदाहस्तं नूपुरैरुपशोभितम् ॥ ११ ॥
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।
शङ्खचक्रकरं काम्यं त्रिनेत्रं कृत्तिवाससम् ॥ १२ ॥
अन्तःस्थं चाण्डबाह्यस्थं बाह्याभ्यन्तरतः परम् ।
सर्वशक्तिमयं शान्तं सर्वाकारं सनातनम् ॥ १३ ॥
ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रयोगीन्द्रैरीड्यमानपदाम्बुजम् ।
सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ॥ १४ ॥
सर्वमावृत्य तिष्ठन्तं ददर्श पदमैश्वरम् ।
दृष्ट्वा च तादृशं रूपं दिव्यं माहेश्वरं पदम् ॥ १५ ॥
तयैव च समाविष्टः स रामो हृतमानसः ।
आत्मन्याधाय चात्मानमोङ्कारं समनुस्मरन् ॥ १६ ॥
नाम्नामष्टसहस्रेण तुष्टाव परमेश्वरीम् ।
सीतोमा परमा शक्तिरनन्ता निष्कलामला ॥ १७ ॥
शान्ता माहेश्वरी नित्या शाश्वती परमाक्षरा ।
अचिन्त्या केवलानन्ता शिवात्मा परमात्मिका॥१८॥
अनादिरव्यया शुद्धा देवात्मा सर्वगोचरा ।
एकानेकविभागस्था मायातीता सुनिर्मला ॥ १९ ॥
महामाहेश्वरी शक्ता महादेवी निरञ्जना ।
काष्ठा सर्वान्तरस्था च चिच्छक्तिरतिलालसा ॥ २० ॥
जानकी मिथिलानन्दा राक्षसान्तविधायिनी ।
रावणान्तकरी रम्या रामवक्षःस्थलालया ॥ २१ ॥
उमा सर्वात्मिका विद्या ज्योतीरूपाऽयुताक्षरी ।
शान्तिः प्रतिष्ठा सर्वेषां निवृत्तिरमृतप्रदा ॥ २२ ॥
व्योममूर्तिर्व्योममयी व्योमाधाराऽच्युता लता ।
अनादिनिधना योषा कारणात्मा कलाकुला ॥ २३ ॥
नन्दप्रथमजा नाभिरमृतस्यान्तसंश्रया ।
प्राणेश्वरप्रिया मातामही महिषवाहिनी ॥ २४ ॥
प्राणेश्वरी प्राणरूपा प्रधानपुरुषेश्वरी ।
सर्वशक्तिः कला काष्ठा ज्योत्स्नेन्दोर्महिमास्पदा॥२५॥
सर्वकार्यनियन्त्री च सर्वभूतेश्वरेश्वरी ।
अनादिरव्यक्तगुणा महानन्दा सनातनी ॥ २६ ॥
आकाशयोनिर्योगस्था सर्वयोगेश्वरेश्वरी ।
शवासना चितान्तःस्था महेशी वृषवाहना ॥२७॥
बालिका तरुणी वृद्धा वृद्धमाता जरातुरा ।
महामाया सुदुष्पूरा मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥ २८ ॥
संसारयोनिः सकला सर्वशक्तिसमुद्भवा ।
संसारसारा दुर्वारा दुर्निरीक्ष्या दुरासदा ॥ २९ ॥
प्राणशक्तिः प्राणविद्या योगिनी परमा कला ।
महाविभूतिर्दुर्धर्षा मूलप्रकृतिसम्भवा ॥ ३० ॥
अनाद्यनन्तविभवा परात्मा पुरुषो बली ।
सर्गस्थित्यन्तकरणी सुदुर्वाच्या दुरत्यया ॥ ३१ ॥
शब्दयोनिः शब्दमयी नादाख्या नादविग्रहा ।
प्रधानपुरुषातीता प्रधानपुरुषात्मिका ॥ ३२ ॥
पुराणी चिन्मयी पुंसामादिः पुरुषरूपिणी ।
भूतान्तरात्मा कूटस्था महापुरुषसञ्ज्ञिता ॥ ३३ ॥
जन्ममृत्युजरातीता सर्वशक्तिसमन्विता ।
व्यापिनी चानवच्छिन्ना प्रधाना सुप्रवेशिनी ॥ ३४ ॥
क्षेत्रज्ञा शक्तिरव्यक्तलक्षणा मलवर्जिता ।
अनादिमायासम्भिन्ना त्रितत्त्वा प्रकृतिर्गुणा ॥ ३५ ॥
महामाया समुत्पन्ना तामसी पौरुषं ध्रुवा ।
व्यक्ताव्यक्तात्मिका कृष्णा रक्ता शुक्ला प्रसूतिका ॥ ३६ ॥
स्वकार्या कार्यजननी ब्रह्मास्या ब्रह्मसंश्रया ।
व्यक्ता प्रथमजा ब्राह्मी महती ज्ञानरूपिणी ॥ ३७ ॥
वैराग्यैश्वर्यधर्मात्मा ब्रह्ममूर्तिर्हृदिस्थिता ।
जयदा जित्वरी जैत्री जयश्रीर्जयशालिनी ॥ ३८ ॥
सुखदा शुभदा सत्या शुभा सङ्क्षोभकारिणी ।
अपां योनिः स्वयम्भूतिर्मानसी तत्त्वसम्भवा ॥ ३९ ॥
ईश्वराणी च शर्वाणी शङ्करार्धशरीरिणी ।
भवानी चैव रुद्राणी महालक्ष्मीरथाम्बिका ॥ ४० ॥
माहेश्वरी समुत्पन्ना भुक्तिमुक्तिफलप्रदा ।
सर्वेश्वरी सर्ववर्णा नित्या मुदितमानसा ॥ ४१ ॥
ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रनमिता शङ्करेच्छानुवर्तिनी ।
ईश्वरार्धासनगता रघूत्तमपतिव्रता ॥ ४२ ॥
सकृद्विभाविता सर्वा समुद्रपरिशोषिणी ।
पार्वती हिमवत्पुत्री परमानन्ददायिनी ॥ ४३ ॥
गुणाढ्या योगदा योग्या ज्ञानमूर्तिविकासिनी ।
सावित्री कमला लक्ष्मीः श्रीरनन्तोरसिस्थिता ॥ ४४ ॥
सरोजनिलया शुभ्रा योगनिद्रा सुदर्शना ।
सरस्वती सर्वविद्या जगज्ज्येष्ठा सुमङ्गला ॥ ४५ ॥
वासवी वरदा वाच्या कीर्तिः सर्वार्थसाधिका ।
वागीश्वरी सर्वविद्या महाविद्या सुशोभना ॥ ४६ ॥
गुह्यविद्याऽऽत्मविद्या च सर्वविद्याऽऽत्मभाविता ।
स्वाहा विश्वम्भरी सिद्धिः स्वधा मेधा धृतिः श्रुतिः ॥ ४७ ॥
नाभिः सुनाभिः सुकृतिर्माधवी नरवाहिनी ।
पूज्या विभावरी सौम्या भगिनी भोगदायिनी ॥ ४८ ॥
शोभा वंशकरी लीला मानिनी परमेष्ठिनी ।
त्रैलोक्यसुन्दरी रम्या सुन्दरी कामचारिणी ॥ ४९ ॥
महानुभावमध्यस्था महामहिषमर्दिनी ।
पद्ममाला पापहरा विचित्रमुकुटानना ॥ ५० ॥
कान्ता चित्राम्बरधरा दिव्याभरणभूषिता ।
हंसाख्या व्योमनिलया जगत्सृष्टिविवर्धिनी ॥ ५१ ॥
निर्यन्त्रा मन्त्रवाहस्था नन्दिनी भद्रकालिका ।
आदित्यवर्णा कौमारी मयूरवरवाहिनी ॥ ५२ ॥
वृषासनगता गौरी महाकाली सुरार्चिता ।
अदितिर्नियता रौद्री पद्मगर्भा विवाहना ॥ ५३ ॥
विरूपाक्षी लेलिहाना महासुरविनाशिनी ।
महाफलाऽनवद्याङ्गी कामपूरा विभावरी ॥ ५४ ॥
विचित्ररत्नमुकुटा प्रणतर्धिविवर्धिनी ।
कौशिकी कर्षिणी रात्रिस्त्रिदशार्तिविनाशिनी ॥ ५५ ॥
विरूपा च सुरूपा च भीमा मोक्षप्रदायिनी ।
भक्तार्तिनाशिनी भव्या भवभावविनाशिनी ॥ ५६ ॥
निर्गुणा नित्यविभवा निःसारा निरपत्रपा ।
यशस्विनी सामगीतिर्भवाङ्गनिलयालया ॥ ५७ ॥
दीक्षा विद्याधरी दीप्ता महेन्द्रविनिपातिनी ।
सर्वातिशायिनी विद्या सर्वशक्तिप्रदायिनी ॥ ५८ ॥
सर्वेश्वरप्रिया तार्क्षी समुद्रान्तरवासिनी ।
अकलङ्का निराधारा नित्यसिद्धा निरामया ॥ ५९ ॥
कामधेनुर्वेदगर्भा धीमती मोहनाशिनी ।
निःसङ्कल्पा निरातङ्का विनया विनयप्रदा ॥ ६० ॥
ज्वालामालासहस्राढ्या देवदेवी मनोन्मनी ।
उर्वी गुर्वी गुरुः श्रेष्ठा सगुणा षड्गुणात्मिका ॥ ६१ ॥
महाभगवती भव्या वसुदेवसमुद्भवा ।
महेन्द्रोपेन्द्रभगिनी भक्तिगम्यपरायणा ॥ ६२ ॥
ज्ञान ज्ञेया जरातीता वेदान्तविषया गतिः ।
दक्षिणा दहना बाह्या सर्वभूतनमस्कृता ॥ ६३ ॥
योगमाया विभावज्ञा महामोहा महीयसी ।
सत्या सर्वसमुद्भूतिर्ब्रह्मवृक्षाश्रया मतिः ॥ ६४ ॥
बीजाङ्कुरसमुद्भूतिर्महाशक्तिर्महामतिः ।
ख्यातिः प्रतिज्ञा चित्संविन्महायोगेन्द्रशायिनी ॥ ६५ ॥
विकृतिः शाङ्करी शास्त्री गन्धर्वयक्षसेविता ।
वैश्वानरी महाशाला देवसेना गुहप्रिया ॥ ६६ ॥
महारात्री शिवानन्दा शची दुःस्वप्ननाशिनी ।
पूज्याऽपूज्या जगद्धात्री दुर्विज्ञेयस्वरूपिणी ॥ ६७ ॥
गुहाम्बिका गुहोत्पत्तिर्महापीठा मरुत्सुता ।
हव्यवाहान्तरा गार्गी हव्यवाहसमुद्भवा ॥ ६८ ॥
जगद्योनिर्जगन्माता जगन्मृत्युर्जरातिगा ।
बुद्धिर्माता बुद्धिमती पुरुषान्तरवासिनी ॥ ६९ ॥
तपस्विनी समाधिस्था त्रिनेत्रा दिविसंस्थिता ।
सर्वेन्द्रियमनोमाता सर्वभूतहृदिस्थिता ॥ ७० ॥
संसारतारिणी विद्या ब्रह्मवादिमनोलया ।
ब्रह्माणी बृहती ब्राह्मी ब्रह्मभूता भयावनिः ॥ ७१ ॥
हिरण्मयी महारात्रिः संसारपरिवर्तिका ।
सुमालिनी सुरूपा च तारिणी भाविनी प्रभा ॥ ७२ ॥
उन्मीलनी सर्वसहा सर्वप्रत्ययसाक्षिणी ।
तपिनी तापिनी विश्वा भोगदा धारिणी धरा ॥ ७३ ॥
सुसौम्या चन्द्रवदना ताण्डवासक्तमानसा ।
सत्त्वशुद्धिकरी शुद्धिर्मलत्रयविनाशिनी ॥ ७४ ॥
जगत्प्रिया जगन्मूर्तिस्त्रिमूर्तिरमृताश्रया ।
निराश्रया निराहारा निरङ्कुशरणोद्भवा ॥ ७५ ॥
चक्रहस्ता विचित्राङ्गी स्रग्विणी पद्मधारिणी ।
परापरविधानज्ञा महापुरुषपूर्वजा ॥ ७६ ॥
विद्येश्वरप्रिया विद्या विद्युज्जिह्वा जितश्रमा ।
विद्यामयी सहस्राक्षी सहस्रश्रवणात्मजा ॥ ७७ ॥
सहस्ररश्मि पद्मस्था महेश्वरपदाश्रया ।
ज्वालिनी सद्मना व्याप्ता तैजसी पद्मरोधिका ॥ ७८ ॥
महादेवाश्रया मान्या महादेवमनोरमा ।
व्योमलक्ष्मीः सिंहरथा चेकितान्यमितप्रभा ॥ ७९ ॥
विश्वेश्वरी विमानस्था विशोका शोकनाशिनी ।
अनाहता कुण्डलिनी नलिनी पद्मवासिनी ॥ ८० ॥
शतानन्दा सतां कीर्तिः सर्वभूताशयस्थिता ।
वाग्देवता ब्रह्मकला कलातीता कलावती ॥ ८१ ॥
ब्रह्मर्षिर्ब्रह्महृदया ब्रह्मविष्णुशिवप्रिया ।
व्योमशक्तिः क्रियाशक्तिर्जनशक्तिः परागतिः ॥ ८२ ॥
क्षोभिका रौद्रिकाऽभेद्या भेदाभेदविवर्जिता ।
अभिन्ना भिन्नसंस्थाना वंशिनी वंशहारिणी ॥ ८३ ॥
गुह्यशक्तिर्गुणातीता सर्वदा सर्वतोमुखी ।
भगिनी भगवत्पत्नी सकला कालकारिणी ॥ ८४ ॥
सर्ववित्सर्वतोभद्रा गुह्यातीता गुहावलिः ।
प्रक्रिया योगमाता च गन्धा विश्वेश्वरेश्वरी ॥ ८५ ॥
कपिला कपिलाकान्ता कनकाभा कलान्तरा ।
पुण्या पुष्करिणी भोक्त्री पुरन्दरपुरःसरा ॥ ८६ ॥
पोषणी परमैश्वर्यभूतिदा भूतिभूषणा ।
पञ्चब्रह्मसमुत्पत्तिः परमात्मात्मविग्रहा ॥ ८७ ॥
नर्मोदया भानुमती योगिज्ञेया मनोजवा ।
बीजरूपा रजोरूपा वशिनी योगरूपिणी ॥ ८८ ॥
सुमन्त्रा मन्त्रिणी पूर्णा ह्लादिनी क्लेशनाशिनी ।
मनोहरी मनोरक्षी तापसी वेदरूपिणी ॥ ८९ ॥
वेदशक्तिर्वेदमाता वेदविद्याप्रकाशिनी ।
योगेश्वरेश्वरी माला महाशक्तिर्मनोमयी ॥ ९० ॥
विश्वावस्था वीरमुक्तिर्विद्युन्माला विहायसी ।
पीवरी सुरभी वन्द्या नन्दिनी नन्दवल्लभा ॥ ९१ ॥
भारती परमानन्दा परापरविभेदिका ।
सर्वप्रहरणोपेता काम्या कामेश्वरेश्वरी ॥ ९२ ॥
अचिन्त्याऽचिन्त्यमहिमा दुर्लेखा कनकप्रभा ।
कूष्माण्डी धनरत्नाढ्या सुगन्धा गन्धदायिनी ॥ ९३ ॥
त्रिविक्रमपदोद्भूता धनुष्पाणिः शिरोहया ।
सुदुर्लभा धनाध्यक्षा धन्या पिङ्गललोचना ॥ ९४ ॥
भ्रान्तिः प्रभावती दीप्तिः पङ्कजायतलोचना ।
आद्या हृत्कमलोद्भूता परामाता रणप्रिया ॥ ९५ ॥
सत्क्रिया गिरिजा नित्यशुद्धा पुष्पनिरन्तरा ।
दुर्गा कात्यायनी चण्डी चर्चिका शान्तविग्रहा ॥ ९६ ॥
हिरण्यवर्णा रजनी जगन्मन्त्रप्रवर्तिका ।
मन्दराद्रिनिवासा च शारदा स्वर्णमालिनी ॥ ९७ ॥
रत्नमाला रत्नगर्भा पृथ्वी विश्वप्रमाथिनी ।
पद्मासना पद्मनिभा नित्यतुष्टामृतोद्भवा ॥ ९८ ॥
धुन्वती दुष्प्रकम्पा च सूर्यमाता दृषद्वती ।
महेन्द्रभगिनी माया वरेण्या वरदर्पिता ॥ ९९ ॥
कल्याणी कमला रामा पञ्चभूतवरप्रदा ।
वाच्या वरेश्वरी नन्द्या दुर्जया दुरतिक्रमा ॥ १०० ॥
कालरात्रिर्महावेगा वीरभद्रहितप्रिया ।
भद्रकाली जगन्माता भक्तानां भद्रदायिनी ॥ १०१ ॥
कराला पिङ्गलाकारा नामवेदा महानदा ।
तपस्विनी यशोदा च यथाध्वपरिवर्तिनी ॥ १०२ ॥
शङ्खिनी पद्मिनी साङ्ख्या साङ्ख्ययोगप्रवर्तिका ।
चैत्री संवत्सरा रुद्रा जगत्सम्पूरणीन्द्रजा ॥ १०३ ॥
शुम्भारिः खेचरी खस्था कम्बुग्रीवा कलिप्रिया ।
खरध्वजा खरारूढा परार्ध्या परमालिनी ॥ १०४ ॥
ऐश्वर्यरत्ननिलया विरक्ता गरुडासना ।
जयन्ती हृद्गुहा रम्या सत्त्ववेगा गणाग्रणीः ॥ १०५ ॥
सङ्कल्पसिद्धा साम्यस्था सर्वविज्ञानदायिनी ।
कलिकल्मषहन्त्री च गुह्योपनिषदुत्तमा ॥ १०६ ॥
नित्यदृष्टिः स्मृतिर्व्याप्तिः पुष्टिस्तुष्टिः क्रियावती ।
विश्वामरेश्वरेशाना भुक्तिर्मुक्तिः शिवामृता ॥ १०७ ॥
लोहिता सर्वमाता च भीषणा वनमालिनी ।
अनन्तशयनानाद्या नरनारायणोद्भवा ॥ १०८ ॥
नृसिंही दैत्यमथिनी शङ्खचक्रगदाधरा ।
सङ्कर्षणसमुत्पत्तिरम्बिकोपान्तसंश्रया ॥ १०९ ॥
महाज्वाला महामूर्तिः सुमूर्तिः सर्वकामधुक् ।
सुप्रभा सुतरां गौरी धर्मकामार्थमोक्षदा ॥ ११० ॥
भ्रूमध्यनिलयाऽपूर्वा प्रधानपुरुषा बली ।
महाविभूतिदा मध्या सरोजनयनाऽसना ॥ १११ ॥
अष्टादशभुजा नाट्या नीलोत्पलदलप्रभा ।
सर्वशक्त्या समारूढा धर्माधर्मानुवर्जिता ॥ ११२ ॥
वैराग्यज्ञाननिरता निरालोका निरिन्द्रिया ।
विचित्रगहना धीरा शाश्वतस्थानवासिनी ॥ ११३ ॥
स्थानेश्वरी निरानन्दा त्रिशूलवरधारिणी ।
अशेषदेवतामूर्तिर्देवता परदेवता ॥ ११४ ॥
गणात्मिका गिरेः पुत्री निशुम्भविनिपातिनी ।
अवर्णा वर्णरहिता निर्वर्णा बीजसम्भवा ॥ ११५ ॥
अनन्तवर्णानन्यस्था शङ्करी शान्तमानसा ।
अगोत्रा गोमती गोप्त्री गुह्यरूपा गुणान्तरा ॥ ११६ ॥
गोश्रीर्गव्यप्रिया गौरी गणेश्वरनमस्कृता ।
सत्यमात्रा सत्यसन्धा त्रिसन्ध्या सन्धिवर्जिता ॥ ११७ ॥
सर्ववादाश्रया साङ्ख्या साङ्ख्ययोगसमुद्भवा ।
असङ्ख्येयाप्रमेयाख्या शून्या शुद्धकुलोद्भवा ॥ ११८ ॥
बिन्दुनादसमुत्पत्तिः शम्भुवामा शशिप्रभा ।
विसङ्गा भेदरहिता मनोज्ञा मधुसूदनी ॥ ११९ ॥
महाश्रीः श्रीसमुत्पत्तिस्तमःपारे प्रतिष्ठिता ।
त्रितत्त्वमाता त्रिविधा सुसूक्ष्मपदसंश्रया ॥ १२० ॥
शान्त्यतीता मलातीता निर्विकारा निराश्रया ।
शिवाख्या चित्रनिलया शिवज्ञानस्वरूपिणी ॥ १२१ ॥
दैत्यदानवनिर्मात्री काश्यपी कालकर्णिका ।
शास्त्रयोनिः क्रियामूर्तिश्चतुर्वर्गप्रदर्शिता ॥ १२२ ॥
नारायणी नवोद्भूता कौमुदी लिङ्गधारिणी ।
कामुकी ललिता तारा परापरविभूतिदा ॥ १२३ ॥
परान्तजातमहिमा वडवा वामलोचना ।
सुभद्रा देवकी सीता वेदवेदाङ्गपारगा ॥ १२४ ॥
मनस्विनी मन्युमाता महामन्युसमुद्भवा ।
अमृत्युरमृतास्वादा पुरुहूता पुरुप्लुता ॥ १२५ ॥
अशोच्या भिन्नविषया हिरण्यरजतप्रिया ।
हिरण्या राजती हैमी हेमाभरणभूषिता ॥ १२६ ॥
विभ्राजमाना दुर्ज्ञेया ज्योतिष्टोमफलप्रदा ।
महानिद्रासमुद्भूतिर्बलीन्द्रा सत्यदेवता ॥ १२७ ॥
दीर्घा ककुद्मिनी विद्या शान्तिदा शान्तिवर्धिनी ।
लक्ष्म्यादिशक्तिजननी शक्तिचक्रप्रवर्तिका ॥ १२८ ॥
त्रिशक्तिजननी जन्या षडूर्मिपरिवर्जिता ।
स्वाहा च कर्मकरणी युगान्तदलनात्मिका ॥ १२९ ॥
सङ्कर्षणा जगद्धात्री कामयोनिः किरीटिनी ।
ऐन्द्री त्रैलोक्यनमिता वैष्णवी परमेश्वरी ॥ १३० ॥
प्रद्युम्नदयिता दान्ता युग्मदृष्टिस्त्रिलोचना ।
महोत्कटा हंसगतिः प्रचण्डा चण्डविक्रमा ॥ १३१ ॥
वृषावेशा वियन्मात्रा विन्ध्यपर्वतवासिनी ।
हिमवन्मेरुनिलया कैलासगिरिवासिनी ॥ १३२ ॥
चाणूरहन्त्री तनया नीतिज्ञा कामरूपिणी ।
वेदविद्याव्रतरता धर्मशीलाऽनिलाशना ॥ १३३ ॥
अयोध्यानिलया वीरा महाकालसमुद्भवा ।
विद्याधरप्रिया सिद्धा विद्याधरनिराकृतिः ॥ १३४ ॥
आप्यायन्ती वहन्ती च पावनी पोषणी खिला ।
मातृका मन्मथोद्भूता वारिजा वाहनप्रिया ॥ १३५ ॥
करीषिणी स्वधा वाणी वीणावादनतत्परा ।
सेविता सेविका सेवा सिनीवाली गरुत्मती ॥ १३६ ॥
अरुन्धती हिरण्याक्षी मणिदा श्रीवसुप्रदा ।
वसुमती वसोर्धारा वसुन्धरासमुद्भवा ॥ १३७ ॥
वरारोहा वरार्हा च वपुःसङ्गसमुद्भवा ।
श्रीफली श्रीमती श्रीशा श्रीनिवासा हरिप्रिया ॥ १३८ ॥
श्रीधरी श्रीकरी कम्प्रा श्रीधरा ईशवीरणी ।
अनन्तदृष्टिरक्षुद्रा धात्रीशा धनदप्रिया ॥ १३९ ॥
निहन्त्री दैत्यसिंहानां सिंहिका सिंहवाहिनी ।
सुसेना चन्द्रनिलया सुकीर्तिश्छिन्नसंशया ॥ १४० ॥
बलज्ञा बलदा वामा लेलिहानाऽमृतस्रवा ।
नित्योदिता स्वयञ्ज्योतिरुत्सुकामृतजीविनी ॥ १४१ ॥
वज्रदंष्ट्रा वज्रजिह्वा वैदेही वज्रविग्रहा ।
मङ्गल्या मङ्गला माला मलिना मलहारिणी ॥ १४२ ॥
गान्धर्वी गारुडी चान्द्री कम्बलाश्वतरप्रिया ।
सौदामिनी जनानन्दा भ्रुकुटीकुटिलानना ॥ १४३ ॥
कर्णिकारकरा कक्षा कंसप्राणापहारिणी ।
युगन्धरा युगावर्ता त्रिसन्ध्या हर्षवर्धिनी ॥ १४४ ॥
प्रत्यक्षदेवता दिव्या दिव्यगन्धा दिवापरा ।
शक्रासनगता शाक्री साध्वी नारी शवासना ॥ १४५ ॥
इष्टा विशिष्टा शिष्टेष्टा शिष्टा शिष्टप्रपूजिता ।
शतरूपा शतावर्ता विनीता सुरभिः सुरा ॥ १४६ ॥
सुरेन्द्रमाता सुद्युम्ना सुषुम्णा सूर्यसंस्थिता ।
समीक्षा सत्प्रतिष्ठा च निवृत्तिर्ज्ञानपारगा ॥ १४७ ॥
धर्मशास्त्रार्थकुशला धर्मज्ञा धर्मवाहना ।
धर्माधर्मविनिर्मात्री धार्मिकाणां शिवप्रदा ॥ १४८ ॥
धर्मशक्तिर्धर्ममयी विधर्मा विश्वधर्मिणी ।
धर्मान्तरा धर्ममध्या धर्मपूर्वा धनप्रिया ॥ १४९ ॥
धर्मोपदेशा धर्मात्मा धर्मलभ्या धराधरा ।
कपाली शाकलामूर्तिः कलाकलितविग्रहा ॥ १५० ॥
सर्वशक्तिविनिर्मुक्ता सर्वशक्त्याश्रयाश्रया ।
सर्वा सर्वेश्वरी सूक्ष्मा सुसूक्ष्मा ज्ञानरूपिणी ॥ १५१ ॥
प्रधानपुरुषेशानी महापुरुषसाक्षिणी ।
सदाशिवा वियन्मूर्तिर्देवमूर्तिरमूर्तिका ॥ १५२ ॥
एवं नाम्नां सहस्रेण तुष्टाव रघुनन्दनः ।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा सीतां हृष्टतनूरुहाम् ॥ १५३ ॥
भारद्वाज महाभाग यश्चैतत् स्तोत्रमद्भुतम् ।
पठेद्वा पाठयेद्वापि स याति परमं पदम् ॥ १५४ ॥
ब्रह्मक्षत्रियविड्योनिर्ब्रह्म प्राप्नोति शाश्वतम् ।
शूद्रः सद्गतिमाप्नोति धनधान्यविभूतयः ॥ १५४ ॥
भवन्ति स्तोत्रमहात्म्यादेतत् स्वस्त्ययनं महत् ।
मारीभये राजभये तथा चोराग्निजे भये ॥ १५६ ॥
व्याधीनां प्रभवे घोरे शत्रूत्थाने च सङ्कटे ।
अनावृष्टिभये विप्र सर्वशान्तिकरं परम् ॥ १५७ ॥
यद्यदिष्टतमं यस्य तत्सर्वं स्तोत्रतो भवेत् ।
यत्रैतत्पठ्यते सम्यक् सीतानामसहस्रकम् ॥ १५८ ॥
रामेण सहिता देवी तत्र तिष्ठत्यसंशयम् ।
महापापातिपापानि विलयं यान्ति सुव्रत ॥ १५९ ॥
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये अद्भुतोत्तरकाण्डे श्रीसीतासहस्रनामस्तोत्रकथनं नाम पञ्चविंशतितमः सर्गः ॥
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