समर्थ गुरु रामदास स्वामी ने आज फाल्गुन कृष्ण नवमी को ली समाधि, इसलिए देशभर में मनाते है 'दास नवमी' उत्सव


कश्मीर से कन्याकुमारी तक सैकड़ों मठ अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना का प्रयास किया 
- छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु, महाराष्ट्र के प्रमुख संत  

धर्म नगरी / 
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संपूर्ण भारतवर्ष देवभूमि है, तो महाराष्ट्र की भूमि ने अनेकानेक संत-महात्माओं को देश व धर्म की रक्षा के लिए लिए। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव, संत जनाबाई, मुक्ताबाई, सोपानदेव आदि का जन्म स्थान एवं कर्म स्थान महाराष्ट्र ही था। इन संतों ने भक्ति मार्ग द्वारा समाज में जन जागृति की। इसी श्रेणी के एक संत रामदास स्वामी भी थे।

रामदास स्वामी का जन्म औरंगाबाद जिले के जांब नामक स्थान पर हुआ। उनका मूल नाम नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी (ठोसर) था। वे बचपन में बहुत शरारती थे। गांव के लोग रोज उनकी शिकायत उनकी माता से करते थे। एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, 'तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहां है।

उसने भी कहा, 'मैंने उसे नहीं देखा।' दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूंढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहां क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूं।'

इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।

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प्रभु रामचंद्रजी के दर्शन-
बचपन में ही उन्हें साक्षात प्रभु रामचंद्रजी के दर्शन हुए थे। इसलिए वे अपने आपको रामदास कहलाते थे। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया। राष्ट्र गुरु समर्थ स्वामी रामदास छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु थे। उन्हीं से शिवाजी महाराज ने अध्यात्म व हिन्दू राष्ट्र की प्रेरणा प्राप्त की थी।

रामदासजी ने महाराज से कहा, 'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ न्यासी हैं।' शिवाजी समय-समय पर उनसे सुझाव लिया करते थे। रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है, इस ग्रंथ में व्यवस्थापन शास्त्र यानी मैनेजमेंट ऑफ साइंस के आध्यात्मिक आधार का सटीक वर्णन किया गया है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' के द्वारा।

समर्थ गुरु रामदास स्वामी ने फाल्गुन कृष्ण नवमी को समाधि ली थी। इसीलिए नवमी तिथि को देश भर में उनके अनुयायी 'दास नवमी' उत्सव के रूप में मनाते है। अपने जीवन का अंतिम समय उन्होंने सातारा के पास परली के किले पर व्यतीत किया। इस किले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। वहीं, उनकी समाधि स्थित है।

प्रतिवर्ष यहां दास नवमी पर लाखों भक्त उनके दर्शन के लिए आते हैं। प्रतिवर्ष समर्थ रामदास स्वामी के भक्त भारत के विभिन्न प्रांतों में 2 माह का दौरा निकालते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ़ की व्यवस्था चलती है।  

स्वामीजी का बाल्यकाल
बाल्यकाल में समर्थ रामदास बहुत चंचल / शरारती हुआ करते थे। गाँव के लोग रोज़ उनकी शिकायत उनकी माता से आकर किया करते थे। एक दिन माता राणुबाई ने नारायण से कहा- "कुछ काम किया करो, तुम दिनभर शरारत करते हो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं।" यह बात नारायण के मन में लग गई। दो-तीन दिन बाद इन्होंने अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यान लगा लिया। दिनभर में नारायण नहीं दिखे तो माता ने बड़े बेटे से नारायण के बारे में पूछा। दोनों उन्हें खोजने निकल पड़े, किंतु उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक़्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यान अवस्था में देखा तो उनसे पूछा- "नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?" तब नारायण ने जवाब दिया- "मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।"

इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक भगवान श्रीराम के भक्त हनुमान की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए, ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो सके।

जीवन का लक्ष्य
कहते हैं, 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर नारायण विवाह के मंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्री रामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम रामदास पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवास में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी, उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्ष साधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे।

कहा जाता है, कश्मीर से कन्याकुमारी तक समर्थ गुरु ने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्री शिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ, तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया। रामदास ने महाराज से कहा- "'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ़ न्यासी हैं।" शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे।


रामदास स्वामी ने बहुत से ग्रंथ लिखे। इसमें 'दासबोध' प्रमुख है। इसी प्रकार उन्होंने हमारे मन को भी संस्कारित किया 'मनाचे श्लोक' द्वारा।


व्यक्तित्व
समर्थ गुरु रामदास का व्यक्तित्व भक्ति ज्ञान वैराग्य से ओतप्रोत था। मुख मण्डल पर दाढ़ी तथा मस्तक पर जटाएं, भाल प्रदेश पर चन्दन का टीका लगा रहता था। उनके कंधे पर भिक्षा के लिए झोली रहती थी। एक हाथ में जपमाला और कमण्डलु तथा दूसरे हाथ में योगदण्ड रहती थी। पैरों में लकड़ी की पादुकाएँ धारण करते थे। योगशास्त्र के अनुसार उनकी भूचरी मुद्रा थी। मुख में सदैव रामनाम का जाप चलता था और बहुत कम बोलते थे। वे संगीत के उत्तम जानकार थे। उन्होनें अनेकों रागों में गायी जाने वाली रचनाएं की हैं। वे प्रतिदिन 1200 सूर्य नमस्कार लगाते थे। इस कारण शरीर अत्यंत बलवान था। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष छोड़कर पूरे जीवम में वे कभी एक जगह पर नहीं रुके। उनका वास्तव्य दुर्गम गुफ़ारँ, पर्वत शिखर, नदी के किनारें तथा घने अरण्य में रहता था। ऐसा समकालीन ग्रंथ में उल्लेख है।


अंतिम समय
अपने जीवन का अंतिम समय समर्थ रामदास ने सतारा के पास परली के क़िले पर व्यतीत किया। बाद में इस क़िले का नाम सज्जनगढ़ पड़ा। तमिलनाडु के तंजावुर ग्राम में रहने वाले अरणिकर नाम के अंध कारीगर ने प्रभु रामचंद्र, माता सीता और लक्ष्मण की मूर्ति बनाकर सज्जनगढ़ को भेज दी। इसी मूर्ति के सामने समर्थ रामदान ने अंतिम पांच दिन निर्जल उपवास किया और पूर्वसूचना देकर माघ वद्य नवमी शालिवाहन शक 1603 (सन 1682) को 73 वर्ष की अवस्था में रामनाम का जाप करते हुए पद्मासन में बैठकर ब्रह्मलीन हो गए। महाराष्ट्र सज्जनगढ़ में उनकी समाधि स्थित है। यह समाधी दिवस 'दासनवमी' के नाम से जाना जाता हैं। प्रतिवर्ष समर्थ रामदास के भक्त भारत के विभिन्न प्रांतों में दो माह का दौरा निकालते हैं और दौरे में मिली भिक्षा से सज्जनगढ़ की व्यवस्था चलती है।

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छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु समर्थ रामदास स्वामी महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे। उनके अमूल्य विचारों से कई महापुरुष भी प्रेरित थे। उनके विचारों ने लोगों और समाज को एक नई दिशा दी। स्वामीजी के कुछ विचार-
- जो अधर्म करता है, बेईमानी से धन कमाता है, जो अविचारी होता है तथा ऐसा इंसान मूर्ख होता है। 
- समय आने पर दूसरों की सहायता करनी चाहिए। शरण में आए प्राणी को क्षमा कर देना चाहिए। 
- महत्वपूर्ण कामों को कभी उपेक्षा नहीं करना चाहिए। 
- किसी विषय पर बात करने से पहले उस विषय पर सोच लेना चाहिए।
- किसी भी काम की शुरुआत करने से पहले उस काम के बारे में जानना जरूरी है। 
-  जब दो व्यक्ति बात करते हैं और तीसरा उन दोनों के बीच जाकर परेशान हो जाता है, वो इंसान मूर्ख होता है। 
- किसी रास्ते पर जाने से पहले वो रास्ता कहां जाता है, यह जानना जरूरी है। बारिश और सही समय को ध्यान में रखकर ही यात्रा के लिए जाना चाहिए। 
- समय आने पर हमें अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिए। 
- किसी और का उपकार (एहसान) हम पर नहीं होने देना चाहिए। अगर कोई हम पर उपकार करता है, तो उसकी वापसी भी शीघ्र ही करनी चाहिए। 
- जो व्यक्ति गरीब से अमीर बन जाता है और अपने पुराने रिश्तों को भूल जाता है, वो इंसान अमीर होकर भी हमेशा गरीब ही रहता है और वो इंसान मूर्ख होता है। 
- किसी से भी कठोरता से पेश नहीं आना चाहिए। किसी प्राणी की हत्या नहीं करनी चाहिए।
- अपनी शक्ति का उपयोग दूसरों को बिना किसी कारण पीड़ा (तकलीफ) देने के लिए नहीं करना चाहिए। जिन्होंने हमें कभी भी पीड़ा नहीं दी, उनको तकलीफ नहीं देनी चाहिए। 
- जिसके पास बुद्धि नहीं है, धन नहीं है और कोई साहस नहीं है, वो इंसान मूर्ख होता है। 
- बात करते वक्त किसी को बुरा नहीं कहना चाहिए। अगर किसी ने अपमान किया तो वो नहीं सह लेना चाहिए। 
- सदैव अपने परिश्रम के बल पर जीना चाहिए। दूसरों के टुकड़ों पर नहीं पलना चाहिए।
- कोई सा भी फल उसको जाने बिना नहीं खाना चाहिए। हमने जो वचन दिया है, उसे हमें नहीं भूलना चाहिए। 

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