ज्ञानवापी : कैसे मंदिर परिसर में बनी मस्जिद ?
एक दृष्टि ज्ञानवापी के इतिहास पर
.धर्म नगरी / DN News
(W.app- 8109107075 -न्यूज़, कवरेज, विज्ञापन व सदस्यों हेतु)- अनुराधा त्रिवेदी*
काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर में मस्जिद कैसे बनीं, इसे लेकर एकबार फिर विवाद खड़ा हुआ है। सहज ही जानने की किसी को भी उत्सुकता होगी, कि मंदिर परिसर में मस्जिद कैसे बनीं ? इसका नाम संस्कृत के शब्द ज्ञानवापी से कैसे पड़ा ? ज्ञानवापी शब्द का अर्थ है- जहां ज्ञान व्याप्त हो, ज्ञान की प्राप्ति हो, ज्ञान का कुंड हो। इस मामले में कुछ इतिहासकार मानते हैं, कि 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की मुसलमानों ने ज्ञानवापी मस्जिद को वर्तमान विश्वनाथ मंदिर को तोडक़र मस्जिद बनाई। हालांकि, न तो इसका कोई साक्ष्य है, न ही उनके दौर में मंदिर तोडक़र मस्जिद बनाए जाने का कोई उल्लेख, कोई कागज, कोई लेख, कोई डाक्यूमेंट, कुछ भी उपलब्ध नहीं है।
विश्वनाथ मंदिर का पौराणिक महत्व आदि काल से है। अकबर ने जब दीन-ए-इलाही चलाए जाने की घोषणा की, तब भी यह मंदिर था और इसका पुननिर्माण अकबर के नौ रत्नों में एक- राजा टोडरमल ने करवाया था। ये तो इतिहास भी मानता है। ज्ञानवापी मस्जिद काफी समय से विवादित रही है। सबसे पहले 1991 ई. में वाराणसी सिविल कोर्ट ने स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से ज्ञानवापी में पूजा-अर्चना के लिए अनुमति हेतु याचिका दायर की गई थी। यह याचिका तीन पंडितों ने लगाई थी। इसके बाद साल 2019 में वकील विजय शंकर रस्तोगी में सिविल कोर्ट में आवेदन दिया और याचिका में उस विश्वेश्वर मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास बताया।
मंदिर का इतिहास कहता है, कि ज्ञानवापी मस्जिद आदि विश्वेश्वर का प्राचीन शिव मंदिर था। राजा विक्रमादित्य ने सबसे पहले इसका जीर्णोद्धार कराया था। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक आदि लिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरिश्चन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था, उसे 1194 में मोहम्मद गोरी न लूटने की बाद तुड़वा दिया था। उसे फिर बनाया गया। 1447 ई. में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने इसे फिर तोड़ दिया। 1585 ई. में राजा टोडरमल ने इसका पुननिर्माण किया। 1632 ई. में शाहजहां ने एक आदेश पारित करके इसे तोडऩे के लिए सेना भेजा। तत्कालीन हिन्दुओं द्वारा प्रबल विरोध के कारण शाहजहां की सेना विश्वनाथ मंदिर के केन्द्रीय मंदिर को नहीं तोड़ सकी, लेकिन उसने काशी के 63 मंदिरों को तोड़ दिया।
18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी करके काशी के विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइबे्ररी कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के तत्कालीन लेखक शाकी मुस्तईद खान द्वारा लिखित ‘मासीदे-आलमगीरी’ में इस विध्वंस का वर्णन है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोडऩे का कार्य पूरा हुआ, इसकी सूचना दी गई। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया। आज भी उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज मुस्लिम हैं।
ऐसा माना जाता है, कि मंदिर के ही अवशेषों से मस्जिद का निर्माण किया गया। इसका उल्लेख 1824 ई में ब्रिटेन के सैलानी रेगिनेहेल्ड हेगर ने लिखा है, कि यह एक हिन्दू मंदिर रहा होगा, जो बाद में मस्जिद बन गई। पुरातत्व विशेषज्ञ और लेखक एडविन ग्रीव्स ने अपनी किताब ‘काशी द सिटी इलट्रियस’ में उसने बताया, मस्जिद में कई चीजें ऐसी हैं जो किसी हिन्दू की झलक देती हैं। कई इतिहासकारों ने काशी विश्वनाथ मंदिर के आक्रमण और मंदिर तोडक़र मस्जिद बनाए जाने का जिक्र अपनी किताबों में किया है। बीएसयू के इतिहास के प्रोफेसर कहते हैं, पहली बात कि ये मस्जिद है ही नहीं, क्योंकि दुनिया में किसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी नहीं हो सकता। ज्ञानवापी तो संस्कृत का शब्द है। मस्जिद का नाम संस्कृत में कैसे हो सकता है ?
विश्वनाथ मंदिर का पौराणिक महत्व आदि काल से है। अकबर ने जब दीन-ए-इलाही चलाए जाने की घोषणा की, तब भी यह मंदिर था और इसका पुननिर्माण अकबर के नौ रत्नों में एक- राजा टोडरमल ने करवाया था। ये तो इतिहास भी मानता है। ज्ञानवापी मस्जिद काफी समय से विवादित रही है। सबसे पहले 1991 ई. में वाराणसी सिविल कोर्ट ने स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से ज्ञानवापी में पूजा-अर्चना के लिए अनुमति हेतु याचिका दायर की गई थी। यह याचिका तीन पंडितों ने लगाई थी। इसके बाद साल 2019 में वकील विजय शंकर रस्तोगी में सिविल कोर्ट में आवेदन दिया और याचिका में उस विश्वेश्वर मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास बताया।
मंदिर का इतिहास कहता है, कि ज्ञानवापी मस्जिद आदि विश्वेश्वर का प्राचीन शिव मंदिर था। राजा विक्रमादित्य ने सबसे पहले इसका जीर्णोद्धार कराया था। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक आदि लिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरिश्चन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था, उसे 1194 में मोहम्मद गोरी न लूटने की बाद तुड़वा दिया था। उसे फिर बनाया गया। 1447 ई. में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने इसे फिर तोड़ दिया। 1585 ई. में राजा टोडरमल ने इसका पुननिर्माण किया। 1632 ई. में शाहजहां ने एक आदेश पारित करके इसे तोडऩे के लिए सेना भेजा। तत्कालीन हिन्दुओं द्वारा प्रबल विरोध के कारण शाहजहां की सेना विश्वनाथ मंदिर के केन्द्रीय मंदिर को नहीं तोड़ सकी, लेकिन उसने काशी के 63 मंदिरों को तोड़ दिया।
18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी करके काशी के विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइबे्ररी कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के तत्कालीन लेखक शाकी मुस्तईद खान द्वारा लिखित ‘मासीदे-आलमगीरी’ में इस विध्वंस का वर्णन है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोडऩे का कार्य पूरा हुआ, इसकी सूचना दी गई। औरंगजेब ने प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया। आज भी उत्तर प्रदेश के 90 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज मुस्लिम हैं।
ऐसा माना जाता है, कि मंदिर के ही अवशेषों से मस्जिद का निर्माण किया गया। इसका उल्लेख 1824 ई में ब्रिटेन के सैलानी रेगिनेहेल्ड हेगर ने लिखा है, कि यह एक हिन्दू मंदिर रहा होगा, जो बाद में मस्जिद बन गई। पुरातत्व विशेषज्ञ और लेखक एडविन ग्रीव्स ने अपनी किताब ‘काशी द सिटी इलट्रियस’ में उसने बताया, मस्जिद में कई चीजें ऐसी हैं जो किसी हिन्दू की झलक देती हैं। कई इतिहासकारों ने काशी विश्वनाथ मंदिर के आक्रमण और मंदिर तोडक़र मस्जिद बनाए जाने का जिक्र अपनी किताबों में किया है। बीएसयू के इतिहास के प्रोफेसर कहते हैं, पहली बात कि ये मस्जिद है ही नहीं, क्योंकि दुनिया में किसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी नहीं हो सकता। ज्ञानवापी तो संस्कृत का शब्द है। मस्जिद का नाम संस्कृत में कैसे हो सकता है ?
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काशी विश्वनाथ को ज्ञान का कुंआ माना गया है। वहां पर वैदिक शिक्षा लेने प्राचीन काल से लोग दूर-दूर से आते थे और आज भी आते हैं। काशी विश्वनाथ वो जगह है, जहां रजिया सुल्तान लोदी, तुगलक, खिलजी, औरंगजेब, शाहजहां सबने तबाही मचाई। कुतुबुद्दीन ऐबक ने जब मंदिर ध्वस्त किया था, तब गुजरात के जैन मंदिर वास्तुपाल ने एक लाख रुपए तत्कालीन दौर में मंदिर के पुननिर्माण के लिए दिए थे। आज ज्ञानवापी मस्जिद से दो किमी. की दूरी पर जिस जगह रजिया मस्जिद है, जिसे रजिया सुल्तान ने खुद को बहादुर महिला के रूप में स्थापित करने के लिए मंदिर तोडक़र बनवाया था। 13वीं सदी में हिन्दुओं ने फिर इसे खड़ा कर लिया। उन तमाम लुटेरे आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़ा, मंदिर का खजाना लूटा और बेशकीमती पत्थर दिखने वाले शिवलिंग को ले जाने की कोशिश की, लेकिन उस शिवलिंग को उपने मूल स्थान से हिला भी नहीं सके। शिवलिंग को अपने साथ ले जाने की तमाम कोशिश क्यों नाकाम हुई, इसका उत्तर शिव महापुराण के 22वें अध्याय के 21वें श्लोक में मिलता है।
शिव महापुराण में एक श्लोक है-
अविमुक्तं स्वयं लिंग स्थापितं परमात्मना न कदाचित्वया,
त्याज्यामिंद क्षेत्रं ममांशकम्।
पंडित ब्रह्मानंद त्रिपाठी ने इस श्लोक की व्याख्या की है, शिवलिंग काशी से बाहर अन्यत्र नहीं ले जा सकते, क्योंकि स्वयं शिव ने अविमुक्त नाम शिव की स्थापना की और आदेश दिया, कि मेरे अंश वाले ज्योतिर्लिंग तुम इस क्षेत्र को कभी नहीं छोडऩा। यह कहकर महादेव ने अपने त्रिशूल के माध्यम से ज्योतिर्लिंग को काशी में स्थापित किया।
अंग्रेज दंडाधिकारी वाट्सन ने 1810 ई में वाइस प्रेसिडेंट ऑफ काउंसिल में कहा था, कि ज्ञानवापी परिसर हमेशा के लिए हिन्दुओं को सौंप दिया जाए। उस परिसर में हर तरफ हिन्दू देवी-देवताओं के मंदिर हैं। मंदिर के बीच में मस्जिद का होना इस बात का प्रमाण है, कि यह स्थान हिन्दुओं का है। अंग्रेजी शासन ने अपने अधिकारी की बात नहीं मानी। इस बात को 212 साल हो चुके हैं।
इसके लगभग 126 साल बाद 11 अगस्त 1926 को स्टेट काउंसिल अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी और सुन्नी सेंट्रल वफ्फ बोर्ड ने याचिका दायर की। 1937 में यह केस खारिज हो गया। पांच साल तक चला मामला 1942 में हाईकोर्ट गया। वहां भी मुस्लिम पक्ष के दावे खारिज हो गए। आज दोनों पक्ष अपने-अपने दावे को लेकर अदालत में खड़े हैं। भविष्य इस बात का निर्धारण करेगा, कि सच्चाई क्या है ?
किसी की बात कोई बदगुमा न समझे
जमीन का दर्द कभी आसमां न समझेगा
आज जब शिवलिंग के मिलने के ठोस दावे किए जा रहे हैं, तब यह कहना मौजूं होगा-
जमीं जब भी हुई करबला हमारे लिए,
तो आसमान से उतरा शिव हमारे लिए।
*प्रबंध संपादक- धर्म नगरी / DNNews, वरिष्ठ पत्रकार।
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